सच्चा धर्म क्या है ?
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Full Description
- सच्चा धर्म क्या है?
- धर्मों के प्रकारः
- क्या मनुष्य को धर्म की आवश्यकता है?
- मनुष्य के मानसिक स्वस्थ और आत्मिक शक्ति को धर्म की आवश्यकताः
- प्रथमः इबादतों के अन्दर इस्लाम का यथार्थवादः
- पारस्परिक टकराव और मतभेद से सुरक्षाः
- प्रथम उदाहरणः शराब के ह़राम किए जाने के पश्चात मदीने में मोमिनों का रवैया
- नमाज़ और उसकी रकअतों की संख्याः
- ज़कात फ़र्ज़ करने की ह़िक्मतः
- ज़कात के फ़ायदेः
- पांचवाँ स्तम्भः ह़ज
- संक्षेप के साथ ह़ज के कार्यक्रम यह हैं:
सच्चा धर्म क्या है?
लेखक
अब्दुल्लाह बिन अब्दुल अज़ीज़ अल्-ईदान
अनुवादकः अताउर्रह़मान ज़ियाउल्लाह
संशोधनः जलालुद्दीन एवं सिद्दीक़ अह़मद
संक्षिप्त परिच
इस पुस्क में धर्म का अर्थ और उसके प्रकार, मानव को धर्म की आवश्यकता, इस्लामी अक़ीदे की विशेषताएं, जीवन के तमाम पहलुओं में इस्लाम की सत्यता, इस्लाम में क़ानून साज़ी के स्रोत और इस्लाम के स्तम्भों का उल्लेख है। यह पुस्तक सच्चे धर्म के अभिलोषी के लिए मार्गदर्शक है।
बिस्मिल्लाहिर्-रह़मानिर्-रह़ीम
अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ, जो अति मेहरबान और दयालु है।
प्रस्तावना
प्रत्येक धर्म अथवा दर्शन के कुछ सिध्दांत होते हैं, जो उसे नियंत्रित करते हैं, कुछ कार्य-प्रणालियाँ और विधियाँ होती हैं, जिनपर वह चलता है तथा कुछ मूल्य होते हैं, जिनकी वह पाबन्दी करता है। इस दृष्टिकोण से हम हर उस व्यक्ति के लिए, जो मौलिक रूप से मुसलमान है, अगले पन्नों में उसके धर्म की संक्षिप्त रूप-रेखा प्रस्तुत करेंगे, ताकि उसका इस्लाम और उसकी इबादत (उपासना) केवल दूसरों की तक़्लीद और अनुसरण की बजाय ज्ञान और जानकारी पर आधारित हो। किन्तु, जो व्यक्ति पहले से मुसलमान नहीं है, हम उसके लिए भी सच्चे धर्म अर्थात इस्लाम का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे, ताकि उसे इस धर्म के उन मूल्यों तथा कार्य-प्रणालियों, आचरणों और आदेशों पर चिन्तन-मनन का उचित अवसर प्राप्त हो सके, जिनके कारण यह धर्म अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है; ताकि यह जानकारी और चिंतन उसे अगले क़दम की ओर –इस धर्म से आकर्षित होने और इससे संतुष्ट होने की ओर- ले जाय। इसलिए कि यह ईश्वरीय धर्म है। मानव जाति का बनाया हुआ धर्म नहीं। यह अपने समस्त पक्षों और शिक्षाओं में सम्पूर्ण है, जैसा कि आने वाली पंक्तियों में पढ़ा जाएगा। हो सकता है यह चीज़ें उसे शीघ्र ही दृढ़ विश्वास, सम्पूर्ण संतुष्टि और पूरी सहमति के साथ इस धर्म में प्रवेश करने के बारे में सोच-विचार करने का आमंत्रण दें। क्योंकि वह इस धर्म में प्रवेश करने पर, –निश्चित रूप से- वास्तविक सौभाग्य, हार्दिक संतोष, सुख-चैन और हर्ष एवं आनन्द का अनुभव करेगा और उस समय वह आयु के हर उस दिन, घन्टा और मिनट पर शोक तथा दुख प्रकट करेगा, जो उसने इस महान धर्म से अलग रहकर बिताया है!
इस प्रस्तावना में हम, हर सच्चे धर्म के अभिलाषी को एक महत्वपूर्ण बात से सावधान करना आवश्यक समझते हैं। वह यह है कि आपको अन्य धर्मों के मानने वालों की तरह, ख़ुद मुसलमानों का दुष्ट आचरण, उनमें फैली हुई बुराइयाँ, धोखाधड़ी अथवा अत्याचार आदि, इस धर्म से परिचित होने, इससे एक ईश्वरीय धर्म के रूप में आश्वस्त होने और स्वीकार करने में रुकावट न बनने पायें। क्यों यह दुष्ट आचरण के मालिक मुसलमान वास्तविक इस्लाम के प्रतिनिधि नहीं हैं। यह केवस अपने प्रतिनिधि हैं। इस्लाम को इनके दुष्ट कर्मों से कोई लेना-देना नहीं है। इनके इन कर्मों को न अल्लाह तआला पसन्द करता है, न उसके रसूल मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पसन्द करते हैं।
अतः हम आपको इन संक्षिप्त पन्नों के पढ़ने का आमन्त्रण देते हैं; ताकि आप स्वयं इस धर्म की वास्तविक शिक्षाओं और इसके बारे में इसके मानने वालों की बातों की सत्यता का निर्णय कर सकें। हमें विश्वास है कि आप इस पुस्तक के अन्दर ऐसी ज्ञानमय बातें, मूल्य और विचार पायेंगे, जिनसे आपको प्रसन्नता होगी, जिनकी आप तलाश में थे और अब आपके हाथ लग गयीं हैं। ये इसलिए कि अल्लाह तआला आपसे प्रेम करता है, लोक-परलोक में आपके लिए भलाई, कृपा एवं आपका कल्याण चाहता है। इसलिए हमें आशा है कि आप इसे शुरू से अन्त तक पढ़ेंगे और जिस सच्चाई की ओर यह बुला रही है, उसे स्वीकार करने में जल्दी करेंगे। क्योंकि सच्चाई इस बात के अधिक योग्य है कि उसकी पैरवी की जाय। आप नफ़्से अम्मारा (बुराई पर उभारने वाली अत्मा), अपने शत्रु शैतान, बुरे साथियों अथवा पूजा के अयोग्य पूज्यों की पूजा करने वाले अपने परिवार के लोगों को इस बात की अनुमति न दें कि वह आपको हिदायत के प्रकाश, इस संसार में सौभाग्य और जीवन के परम सुख से रोक दें, जो आपको इस धर्म में प्रवेश करने के बाद प्राप्त होगा। इसलिए कि वह आपको इससे रोककर आपको जीवन की सबसे महान और मूल्यवान वस्तु से लाभान्वित होने से वंचित कर देंगे। दर असल वह महान और बहुमूल्य वस्तु है मरने के पश्चात स्वर्ग प्राप्त होना।.....तो फिर क्या आप इस आमंत्रण को स्वीकार करेंगे.....? अत्यंत बहुमूल्य उपहार जो हम आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं....। हमें आपसे यही आशा है।
अब धीरे-धीरे इस संक्षिप्त परिचय के पन्नों को पलटते हैं।
धर्म का अर्थ
जब हम धर्म को इस पहलु (दृष्टि) से देखते हैं कि वह धर्मनिष्ठा के अर्थ में एक मानसिक अवस्था है, तो उसका तात्पर्य यह होता है किः
“एक अदृश्य परम अस्तित्व पर विश्वास रखना, जो मानव संबंधित कार्यों का उपाय, व्यवस्था और संचालन करता है। ऐसा विश्वास, जो उस परम और दिव्य अस्तित्व की ओर रूचि और उससे भय के साथ, विनयपूर्वक तथा उसकी प्रतिष्ठा एवं महानता का गुणगान करते हुए उसकी आराधना करने पर उभारती है।"
और संक्षिप्त में यह कह सकते हैं किः
“एक अनुसरण और पूजा के योग्य ईश्वरीय अस्तित्व पर विश्वास रखना।"
किन्तु जब हम उसे इस पहलु (दृष्टि) से देखते हैं कि वह एक बाहरी वास्तविकता है, तो हम उसकी परिभाषा इस प्रकार करेंगे कि वहः
“वह तमाम काल्पनिक सिध्दांत, जो उस ईश्वरीय शक्ति के गुणों को निर्धारित करते हैं और वह तमाम व्यवहारिक नियम, जो उसकी उपासना की विधियों की रूप-रेखा तैयार करते हैं।"
धर्मों के प्रकारः
अध्ययन कर्ता इस बात से परिचित हैं कि धर्म के दो प्रकार हैं:
आसमानी या पुस्तक सम्बन्धी धर्मः
अर्थात जिस धर्म की कोई धर्मपुस्तक हो, जो आकाश से अवतरित हुई हो, जिसमें मानव जाति के लिए अल्लाह तआला का मार्गदर्शन हो। उदाहरण स्वरूप “यहूदियत" जिसमें अल्लाह तआला ने अपनी पुस्तक “तौरात" को अपने संदेशवाहक “मूसा" अलैहिस्सलात वस्सलाम पर अवतरित किया।
और जैसा कि “ईसाइयत" (Christianity) है, जिसमें अल्लाह तआला ने अपनी पुस्तक “इन्जील" को अपने संदेशवाहक ईसा अलैहिस्सलात वस्सलाम पर अवतरित किया।
और जैसा कि “इस्लाम" है, जिसमें अल्लाह तआला ने “क़ुर्आन" को अपने अन्तिम संदेश्वाहक और दूत “मुह़म्मद" सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर अवतरित किया।
इस्लाम और अन्य किताबी (पुस्तक सम्बन्धी, आसमानी) धर्मों के मध्य अन्तर यह है कि अल्लाह तआला ने इस्लाम के मूल सिध्दान्तों और उसके स्रोतों की सुरक्षा की है, क्योंकि यह मानव जाति के लिए अन्तिम धर्म है। इसीलिए यह हेर-फेर और परिवर्तन से ग्रस्त नहीं हुआ है। जबकि दूसरे धर्मों के स्रोत और उनकी पवित्र पुस्तिकाएं नष्ट हो गयीं और उनमें हेर-फेर, परिवर्तन और संशोधन कर दिये गये।
मूर्तिपूजन और लौकिक धर्मः
जिसका सम्बन्ध आकाश की बजाय धरती से हो तथा अल्लाह की बजाय मनुष्य से हो। जैसे बुध्द मत, हिन्दू मत, कन्फूशियस, ज़रतुश्ती और इनके अतिरिक्त संसार के अन्य धर्म।
यहाँ पर स्वतः एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठ खड़ा होता है। वह यह है कि क्या एक बुध्दिमान प्राणी वर्ग, मनुष्य जाति को यह शोभा देता है कि वह अपने ही समान किसी प्राणी वर्ग को पूज्य मानकर उसकी उपासना करे? चाहे वह कोई मनुष्य हो या पत्थर, गाय हो या अन्य वस्तु! और क्या उसका जीवन सफल, उसके कार्य व्यवस्थित और उसकी समस्याएं हल हो सकती हैं, जबकि वह ऐसी व्यवस्था और शास्त्र का अनुकरण करने वाला है, जिसे पूर्णतः मनुष्य ने बनाया है।
क्या मनुष्य को धर्म की आवश्यकता है?
मनुष्य के लिए सामान्य रूप से धर्म की और विशेष रूप से इस्लाम की आवश्यकता, कोई द्वितीयक आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह एक मौलिक और बुनियादी आवश्यकता है, जिसका सम्बन्ध जीवन के सार, ज़िन्दगी के रहस्य और मनुष्य की अथाह गहराइयों से है।
अति सम्भावित संक्षेप में –जो समझने में बाधक न हो- हम मनुष्य के जीवन में धर्म की आवश्यकता के कारणों का वर्णन कर रहे हैं:
संसार के महान तथ्यों को जानने के लिए अक़्ल (बुध्दि) को धर्म की आवश्यकताः
मनुष्य को धार्मिक आस्था (विश्वास) की आवश्यकता –सर्वप्रथम- उसे अपने आपको जानने और अपने आस-पास के महान अस्तित्व (जगत) को जानने की आवश्यकता से उत्पन्न होती है। अर्थात उन प्रश्नों का उत्तर जानने की आवश्यकता, जिनमें मानव शास्त्र (विज्ञान) व्यस्त है, किन्तु उनके विषय में कोई संतोषजनक उत्तर जुटाने में असमर्थ है।
जबसे मनुष्य की सृष्टि हुई है, कई ऐसे प्रश्न उसके मन-मस्तिष्क में उभरते रहे हैं, जिनका उत्तर देने की आवश्यकता है। जैसे, वह कहाँ से आया है? (आरम्भ क्या है?) उसे कहाँ जाना है? (अन्त क्या है?) और क्यों आया है? (उसके वजूद का उद्देश्य क्या है?) जीवन की आवश्यकताएं और समस्याएं उसे यह प्रश्न करने से कितना ही बाज़ रखें, किन्तु वह एक दिन अवश्य उठ खड़ा होता है, ताकि वह अपने आपसे इन अनन्त प्रश्नों के बारे में पूछेः
(क) मनुष्य अपने दिल में सोचता है कि मैं और मेरी चारों ओर यह विशाल जगत कहाँ से उत्पन्न हुआ है? क्या मैं स्वतः पैदा हो गया हूँ या कोई जन्मदाता है, जिसने मुझे जन्म दिया है? मेरा उससे क्या सम्बन्ध है? इसी प्रकार यह विशाल संसार अपनी धरती और आकाश, जानवर और वनस्पति, खनिज पदार्थ और खगोल समेत क्या स्वतः वजूद में आ गया है या उसे किसी प्रबन्ध कुशल सृष्टा ने वजूद बख़्शा है?
(ख) फिर इस जीवन तथा मृत्यु के पश्चात क्या होगा? इस धरती पर इस संक्षिप्त यात्रा के पश्चात कहाँ जाना है? क्या जीवन की कथा केवल यही है कि “माँ जनती है और धरती निगलती है" और उसके बाद कुछ नहीं है? ऐसे सदाचारी और पवित्र लोग, जिन्होंने सत्य और भलाई के मार्ग में अपनी जानों को न्योछावर कर दिया तथा ऐसे गुनहगार और पापी, जिन्होंने शह्वत, लालसा और नफ्सानी ख़्वाहिश के मार्ग में दूसरों की बलि चढ़ा दी, क्या दोनों का अन्त समान और बराबर हो सकता है? क्या जीवन बिना किसी बदले और प्रतिफल के यूं ही मृत्यु पर समाप्त हो जायेगा या मरने के पश्चात एक अन्य जीवन भी है, जिसमें दुष्कर्मियों को उनके कर्म का बदला दिया जाएगा और सत्कर्म करने वालों को अच्छा प्रतिफल मिलेगा?
(ग) फिर यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य की उत्पत्ति क्यों हुई है? उसे बुध्दि और सोचने-समझने की शक्ति क्यों प्रदान की गयी है और वह समस्त जानदारों से श्रेष्ठ क्यों है? आकाश और धरती की समस्त चीज़ें उसके अधीन क्यों कर दी गयी हैं? क्या उसके जन्म लेने का कोई उद्देश्य है? क्या उसके जीवन काल में उसका कोई कर्तव्य है? या वह केवल इसलिए पैदा किया गया है कि जानवरों के समान खाये-पिये, फिर चौपायों के समान मर जाए? यदि उसके वजूद का कोई उद्देश्य और मक़्सद है, तो वह क्या है? और वह उसे कैसे पहचानेगा?
ये वो प्रश्न हैं, जो हर युग में मनुष्य से अनुग्रहपूर्वक ऐसे उत्तर का तक़ाज़ा करते रहे हैं, जो प्यास को बुझा सके और हृदय को संतुष्टि प्रदान कर सके। किन्तु संतोषजनक उत्तर प्राप्त करने का एक ही मार्ग है। वह है, धर्म का आश्रय लेना और उसकी ओर पलटना। धर्म मनुष्य को –सर्वप्रथम- इस बात से अवगत कराता है कि वह न तो सहसा अस्तित्व में आ गया है और न इस जगत में स्वंय स्थापित हो गया है। बल्कि वह एक महान सृष्टा की एक सृष्टि है। वही उसका पालनहार है, जिसने उसकी उत्पत्ति की, फिर उसे ठीक-ठाक किया, फिर उसे शुध्द और उचित बनाया, फिर उसमें रूह़ फूँकी (जान डाला), उसके कान, आँख और दिल बनाए और उसे उसी समय से अपनी बेशुमार अनुकम्पाएं प्रदान कीं, जब वह अपनी माँ के पेट में गर्भस्थ था। (अल्लाह तआला का फ़रमान हैः)
﴿أَلَمۡ نَخۡلُقكُّم مِّن مَّآءٖ مَّهِينٖ ٢٠ فَجَعَلۡنَٰهُ فِي قَرَارٖ مَّكِينٍ ٢١ إِلَىٰ قَدَرٖ مَّعۡلُومٖ ٢٢ فَقَدَرۡنَا فَنِعۡمَ ٱلۡقَٰدِرُونَ ﴾ [1]
“क्या हमने तुम्हें एक ह़क़ीर (तुच्छ) पानी (वीर्य) से पैदा नहीं किया, फिर हमने उसे सुरक्षित स्थान में रखा, एक निर्धारित समय तक, फिर हमने अनुमान लगाया और हम कितना उचित (अच्छा) अनुमान लगाने वाले हैं!"
और धर्म ही मनुष्य को इस बात से अवगत कराता है कि वह जीवन और मरण के पश्चात कहाँ जाएगा? धर्म ही उसे यह जानकारी देता है कि मौत केवल विनाश और अनस्तित्व नहीं है, बल्कि वह एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर...... बर्ज़ख़ी जीवन की ओर स्थानांतरित होना है। उसके पश्चात दूसरा जीवन है, जिसमें हर प्राणी को उसके कर्मों का पूरा-पूरा बदला दिया जायेगा और जो कुछ उसने कर्म किया है, उसमें वह सदैव रहेगा। सो वहाँ किसी नेकी करने वाले की नेकी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, नष्ट नहीं होगा। ईश्वर (अल्लाह) के न्याय से कोई अत्याचारी, क्रूर, अहंकारी और अभिमानी जान नहीं छुड़ा सकता है।
धर्म ही मनुष्य को यह ज्ञान प्रदान करता है कि वह किस उद्देश्य के लिए पैदा किया गया है? उसे आदर एवं सम्मान और प्रतिष्ठा एवं सत्कार क्यों प्रदान किया गया है? उसे उसकी ज़िन्दगी के मक़सद तथा उसके दायित्व और कर्तव्य से परिचित कराता है कि उसे निरर्थक और बेकार नहीं पैदा किया गया है और न ही उसे व्यर्थ छोड़ दिया गया है। उसकी उत्पत्ति इसलिए हुई है, ताकि वह धरती पर अल्लाह तआला का प्रतिनिधि और उत्तराधिकारी बन जाय, उसे अल्लाह के आदेश के अनुसार आबाद करे, उसे अल्लाह तआला की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए काम में लाये, उसके भीतर पायी जाने वाली चीज़ों की खोज और आविष्कार करे और बिना दूसरों के अधिकार पर अत्याचार किये और अपने रब (पालनहार) के अधिकार को भूले, उसकी पवित्र चीज़ों को खाये-पिये। उसके ऊपर उसके रब (पालनहार) का सर्वप्रथम अधिकार यह है कि वह अकेले उसी की इबादत (उपासना) करे, उसके साथ किसी को साझी न ठहराए और यह कि उसकी इबादत उसी प्रकार करे, जैसे अल्लाह तआला ने अपने उन संदेशवाहकों (रसूलों) के द्वारा सिखाया है, जिन्हें उसने मार्गदर्शक और शिक्षक, शुभसूचक और डराने वाला बनाकर भेजा है। किन्तु वर्तमान समय में अन्तिम नबी (ईश्दूत) मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करे, जब वह इस परीक्षाओं और धार्मिक कर्तव्यों (बन्धनों) से घिरे हुए संसार में अपने दायित्व का निर्वहण कर लेगा, तो उसका प्रतिफल और बदला परलोक में पायेगा। अल्लाह तआला का कथन हैः
﴿يَوۡمَ تَجِدُ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ مِنۡ خَيۡرٖ مُّحۡضَرٗا﴾[2]
“(उस दिन को याद करो) जिस दिन हर प्राणी, जो कुछ उसने सत्कर्म किया है, उसे अपने समक्ष उपस्थित पायेगा।"
इससे मनुष्य को अपने वजूद का बोध हो जाता है और जीवन में अपने दायित्वों और कर्तव्यों का स्पष्ट रूप से पता चलता है, जिसे उसके लिए सृष्टि के रचयिता, जीवन दाता और मनुष्य के सृष्टा ने स्पष्ट कर दिया है।
जो व्यक्ति बिना धर्म –अल्लाह और परलोक के दिन पर विश्वास रखे- जीवन यापन करता है, वह वास्तव में अभागा और वंचित व्यक्ति है। वह स्वंय अपनी निगाह में एक पाशव (जानवर जैसा) प्रणी है और वह किसी भी प्रकार से उन बड़े-बड़े जानवरों से भिन्न नहीं है, जो उसकी चारों ओर धरती पर चलते-फिरते हैं....... जो खाते-पीते एवं (सांसारिक) लाभ उठाते हैं और फिर मर जाते हैं। उन्हें न अपने किसी उद्देश्य का पता होता है और न वह अपने जीवन का कोई रहस्य जानते हैं। निःसंदेह वह एक छोटा और साधारण सृष्टि है, जिसका कोई भार और मूल्य नहीं है। वह पैदा तो हो गया, किन्तु उसे यह पता नहीं है कि वह कैसे पैदा हुआ है और उसे किसने पैदा किया है। वह जीवन-यापन कर रहा है, किन्तु उसे यह ज्ञान नहीं है कि वह क्यों जी रहा है? वह मरता है, किन्तु उसे यह पता नहीं है कि वह क्यों मरता है? और मरने के पश्चात क्या होगा? वह अपनी तमाम चीज़ों, मरने और जीने, प्रारम्भ और अन्त के विषय में संदेह बल्कि अंधेपन का शिकार है।
उस मनुष्य का जीवन कितना दयनीय है, जो सर्वविशेष और प्रमुख चीज़ अर्थात अपने नफ़्स की वास्तविकता, अपने अस्तित्व के रहस्य और अपने जीवन के उद्देश्य के सम्बन्ध में संदेह और विस्मय के जहन्नम या अन्धेपन और मूर्खता के घटाटोप अन्धेरों में जी रहा हो। वस्तुतः वह अभागा और दुखी मनुष्य है, यद्यपि वह सोने और रेशम में डूबा हुआ और आनन्द और सुख के उपकरणों से घिरा हुआ हो, सर्वोच्च उपाधिपत्रें रखता हो और ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ (उपाधियाँ) प्राप्त किया हुआ हो!
मानव-प्रकृति को धर्म की आवश्यकताः
इसी प्रकार भावना और चेतना को भी धर्म की आवश्यकता होती है। क्योंकि मनुष्य इलेक्ट्रॉनिक मस्तिष्क के समान केवल बुध्दि का नाम नहीं है। बल्कि वह बुध्दि, भावना व चेतना और आत्मा का नाम है। इसी प्रकार उसकी प्रकृति की रचना हुई है और यही उसके प्रकृति की आवाज़ है। मनुष्य की यह प्रकृति है कि कोई ज्ञान और सभ्यता उसे सन्तुष्ट नहीं कर सकती, कोई कला और साहित्य उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकता, और न कोई श्रृंगार और धन-पूंजी उसके शून्य-हृदय की पूर्ति कर सकती है। बल्कि उसका दिल बेचैन, उसकी आत्मा भूखी और उसकी प्रकृती प्यासी रहती है और उसे रिक्तता और अभाव का गम्भीर अहसास रहता है। यहाँ तक कि जब वह अल्लाह पर आस्था और विश्वास की दौलत प्राप्त कर लेता है, तो व्याकुलता के बाद शान्ति मिलती है, भय के बाद सुरक्षा का अनुभव होता है और उसके अन्दर यह अहसास जन्म लेता है कि उसने अपने आपको पा लिया है।
हमारे पैग़म्बर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैः
((مَا مِنْ مَوْلُوْدٍ إِلَّا وَ يُوْلَدُ عَلَى الْفِطْرَةِ، فَأَبَوَاهُ يُهَوِّدَانِهِ، أَوْ يُنَصِّرَانِهِ، أَوْ يُمَجِّسَانِهِ))
“हर (पैदा होने वाला) शिशु फ़ितरत (इस्लाम की दशा) पर जन्म लेता है। फिर उसके माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं, ईसाई बना देते हैं या मजूसी बना देते हैं।"
इस ह़दीस के अन्दर इस बात पर अधिक बल दिया गया है कि मनुष्य की मूल प्रकृति यह होती है वह अपने रब (पालनकर्ता) के समक्ष समर्पित और सच्चे धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार होता है और इस फ़ितरत से विमुख होकर बातिल (मिथ्या, असत्य) धर्मों की ओर अपने आस-पास की परिस्थितियों के कारण ही मुख करता है। चाहे इसका कारण माता-पिता हों, शिक्षक हों, परिवेश हो या इनके अतिरिक्त अन्य कोई चीज़।
फ़िलास्फ़र (दार्शनिक) “अगोस्त सियातियह" अपनी पुस्तक “धर्म-शास्त्र" में लिखता हैः
“मैं धर्म निष्ठ क्यों हूँ? मैं इस प्रश्न के साथ अपने ओठ को एक बार भी हिलाता हूँ, तो अपने आपको इस प्रश्न का यह उत्तर देने पर विवश पाता हूँ कि मैं धर्म निष्ठ हूँ, इसलिए कि मैं इसके विरुध्द की शक्ति नहीं रखता, इसलिए कि धर्म निष्ठ होना मेरे अस्तित्व की आवश्यकताओं में से एक आध्यात्मिक आवश्यकता है। लोग मुझसे कहते हैं कि यह पुश्तैनी गुणों, प्रशिक्षण, अथवा स्वभाव का प्रभाव है। मैं उनसे कहता हूँ: मैंने बहुधा ठीक इन्हीं आपत्तियों के द्वारा अपने नफ़्स पर आपत्ति वयक्त की है। किन्तु मैंने पाया है कि यह समस्या को दबा देता है और उसकी कोई व्याख्या नहीं कर पाता।"
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमें यह आस्था और धारणा हर जातियों में; चाहे वह प्राचीन असभ्य जातियाँ हों या सभ्य, हर महाद्वीप में; चाहे वह पूर्वी महाद्वीप हो या पश्चिमी और हर युग में; चाहे वह प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, दिखाई देता है। यह और बात है कि अधिकांश लोग सीधे मार्ग से भटक गये।
यूनानी इतिहासकार “ब्लूतार्क" (BLUTARCH) का कहना हैः
मैंने इतिहास में बिना क़िलों के नगरों को, बिना मह़लों के नगरों को, बिना पाठशालाओं के नगरों को तो पाया है, किन्तु बिना पूजास्थलों और इबादतगाहों के नगर कभी नहीं पाये गए।
मनुष्य के मानसिक स्वस्थ और आत्मिक शक्ति को धर्म की आवश्यकताः
धर्म की एक अन्य आवश्यकता भी है। एक ऐसी आवश्यकता, जिसका तक़ाज़ा मनुष्य का जीवन और उसके अन्दर उसकी आकांक्षाएं तथा आशाएं और उसकी पीड़ाएं और यातनाएं करती हैं..... मनुष्य की एक ऐसे शक्तिमान स्तम्भ की आवश्यकता, जिसकी ओर वह शरण ले सके, एक सशक्त आधार और सहारे की आवश्यकता, जिसपर वह भरोसा कर सके। जिस समय वह कठिनाइयों से ग्रस्त हो, जब उसके यहाँ दुर्घटनाएं घटें, जब वह अपनी प्रिय चीज़ से हाथ धो बैठे, अप्रिय चीज़ का सामना करे या उसपर ऐसी चीज़ टूट पड़े, जिसका उसे भय या डर हो, ऐसी परिस्थिति में धार्मिक आस्था अपना किर्दार निभाती है। चुनांचे यह उसे कमज़ोरी के समय शक्ति, निराशा की घड़ियों में आशा, भय के छणों में उम्मीद और कठिनाईयों, कष्टों तथा संकट के समय धैर्य प्रदान करती है।
अल्लाह तआला, उसके न्याय और कृपा में आस्था तथा क़यामत के दिन उसके समक्ष प्रस्तुत किये जाने और उसके सदैव बाक़ी रहने वाले घर, जन्नत की प्राप्ति पर विश्वास, मनुष्य को मानसिक स्वस्थ और अध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है। फिर तो उसके अस्तित्व से हर्ष एवं आनन्द की किरण फूट पड़ती है, उसकी आत्मा आशा से परिपूर्ण हो जाती है, उसकी आँखों में संसार का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है, वह जीवन को उज्जवल दृष्टि से देखने लगता है और अपने संक्षिप्त अस्थायी जीवन में, जो कष्ट सहता और जिन चीज़ों का सामना करता है, वह सब उसपर सरल हो जाता है। उसे ऐसे ढारस, आशा और शान्ति का अनुभव होता है, जिसका स्थान न कोई ज्ञान और दर्शन ग्रहण कर सकता है, न कोई धन-पूंजी और न सन्तान तथा पूरब और पश्चिम का शासन।
किन्तु, वह व्यक्ति, जो अपने संसार में बिना किसी ऐसे धर्म और विश्वास के जीता है, जिससे वह अपनी तमाम समस्याओं में निर्देश प्राप्त कर सके; उससे किसी चीज़ के बारे में धार्मिक आदेश ज्ञात करे, तो वह उसका आदेश बतलाए, उससे प्रश्न करे तो उसका उत्तर दे और उससे सहायता मांगे तो उसकी सहायता करे। उसे ऐसी सहायता और सहयोग प्रदान करे जो परास्त न हो और निरन्तर रहे। जो व्यक्ति, इस विश्वास और आस्था से परे जीवन व्यतीत करता है, वह इस अवस्था में जीता है कि उसका हृदय बेचैन होता है, उसकी सोच भ्रमित होती है, उसकी अभिरूचि परागन्दा होती है और उसका अस्तित्व भंग और टुकड़े-टुकड़े होता है। कुछ नीति शास्त्रों ने ऐसे व्यक्ति को उस अभागा के समान ठहराया है, जिसके बारे में बयान किया जाता है कि उसने बादशाह की हत्या कर दी और उसका दण्ड यह निर्धारित किया गया कि उसके दोनों हाथों और दोनों पावों को चार घोड़ों में बांध दिया जाय। फिर उनमें से प्रत्येक की पीठ पर लाठियाँ बरसायी गयीं, ताकि उनमें से हर एक चारों दिशाओं में से अलग-अलग दिशाओं में तेज़ी से भागे। यहां तक कि उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो गये!
यह घृणित शारीरिक तौर पर टुकड़े-टुकड़े होना, उस मानसिक रूप से भंग होने के समान है, जिससे धर्म के बिना जीने वाला व्यक्ति पीड़ित होता है। और शायद होशमंदों के नज़दीक दूसरी ह़ालत पहली हालत से अधिक कष्टदायक, दयनीय और घातक है। क्योंकि इस भंग का प्रभाव कुछ पलों और क्षणों में समाप्त नहीं होता, बल्कि यह एक यातना है, जिसकी अवधि लम्बी होती है। यह पीड़ित व्यक्ति का साथ जीवन भर नहीं छोड़ती।
अतः हम देखते हैं कि वह लोग, जो बिना सुदृढ़ विश्वास और आस्था (अक़ीदा) के जीवन बिताते हैं, वह दूसरे लोगों से अधिक मानसिक बेचैनी, जिस्मानी तनाव, दिमाग़ी उलझन एवं व्याकुलता के शिकार होते हैं। जब उन्हें जीवन के दुर्भाग्यों और संकटों का सामना होता है, तो वह अति शीघ्र टूट जाते हैं। फिर या तो जल्द ही आत्महत्या कर लेते हैं या मानसिक रोगी बनकर मृतकों के समान जीवन व्यतीत करते हैं! जैसा कि प्राचीन अरबी कवि ने इसको रेखांकित किया हैः
“वह व्यक्ति, जो मरकर विश्राम पा जाय, वह मुर्दा नहीं है। वास्तव में, मुर्दा वह है, जो जीवित रहकर भी मुर्दा हो। मुर्दा तो वह व्यक्ति है, जो दुखी, शोक-ग्रस्त, मृत-हृदय और निराश होकर जीवन बिताता है।"
इसी बात को वर्तमान काल में मानसशास्त्रियों और मानसिक रोगों की चिकित्सा करने वालों ने सिध्द किया है और इसी बात को सर्वसंसार में विचारकों और समालोचकों ने प्रमाणित किया है।
डॉक्टर कार्ल पांज अपनी पुस्तक “वर्तमान युग का मनुष्य अपने नफ़्स की तलाश में हैं" में कहता हैः
“पिछले तीस वर्षों के दौरान पूरी दुनिया के जिन रोगियों ने भी मुझसे प्रामर्श लिया है, उनसब की बीमारी का कारण, उनके विश्वास का अभाव और अक़ीदे का अदृढ़ एवं डांवा-डोल होना था। उन्हें स्वास्थ उसी समय प्राप्त हुआ, जब उन्होंने अपने ईमान को पुनः स्थापित और पुनर्जीवित कर लिया।"
लाभ एवं संसाधन शास्त्र विज्ञानी “विलियम जेम्स" का कहना हैः
“निःसंदेह, चिन्ता और शोक का सबसे महान उपचार ईमान और विश्वास है।"
डॉक्टर “बिरियल" का कथन हैः
“निःसंदेह, वास्तविक रूप से धर्मनिष्ठ व्यक्ति कभी भी मानसिक बीमारियों से ग्रस्त नहीं होता।"
तथा डॉक्टर “डील कारनीजी" अपनी पुस्तक “चिन्ता छोड़ो और जीवन का आरम्भ करो" में कहते हैं:
“मानसशास्त्र विज्ञानी जानते हैं कि दृढ़ विश्वास और धर्म निष्ठता, यह दोनों; शोक, चिन्ता, मानसिक तनाव को समाप्त कर देने और इन बीमारियों से स्वास्थ प्रदान करने के ज़ामिन हैं।"
समाज में प्रेरणोओं, आचरण के नियमों तथा व्यवहार संहिता के लिए धर्म की आवश्यक्ताः
धर्म की अन्य आवश्यकता भी है। वह है सामाजिक आवश्यकता। समाज को प्रेरकों और नियमों की आवश्यकता है। अर्थात ऐसे प्रेरक जो समाज के हर व्यक्ति को भलाई का काम करने और कर्तव्य का पालन करने पर उभारें, यद्यपि कोई उनकी निगरानी (निरीक्षण) करने वाला या बदला देने वाला मौजूद न हो......। और ऐसे ज़ाब्ते और संहिताएं, जो सम्बन्धों और सम्पर्कों को नियंत्रित करें। हर एक को इस बात पर बाध्य करें कि वह अपनी सीमा से आगे न बढ़े, अपनी इच्छाओं या शीघ्र प्राप्त होने वाले भौतिक लाभ के कारण दूसरे के अधिकार पर आक्रमण न करे अथवा समाज के कल्याण एवं हित में लापरवाही से काम न ले।
यह नहीं कहा कजा सकता कि नियम और विधेयक इन ज़ाब्तों और संहिताओं और प्रेरकों को पैदा करने के लिए प्रयाप्त हैं। क्योंकि नियम किसी प्रेरक और प्रोत्साहन को जन्म नहीं दे सकते। इसलिए कि उनसे छुटकारा पाना सम्भव है। उनके साथ चालबाज़ी करना और बहाना बनाना सरल है। इसलिए ऐसे प्रेरकों, व्यवहार संहिता तथा आचरण के ज़ाब्तों का होना आवश्यक है, जो मनुष्य के हृदय के भीतर से काम करते हों। उसके बाहर से नहीं। इस आन्तरिक प्रेरक का होना आवश्यक है। “अन्तरात्मा", “भावना" या “हृदय" का होना आवश्यक है –आप उसको कुछ भी नाम दे दें।- यही वह शक्ति है, जो जब शुध्द होती है, तो मनुष्य का पूरा कर्म शुध्द होता है और जब वह दूषित हो जाती है, तो सारा कर्म दूषित हो जाता है।
लोगों का मुशाहिदा, अनुभव और साहित्य के पढ़ने से यह सिध्द हो चुका है कि अन्तरात्मा के प्रशिक्षण, आचरण शुध्दि, भलाई पर उभारने वाले प्रेरकों और बुराई से रोकने वाली संहिताओं की को वजूद में लाने के लिए धार्मिक विश्वास से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। यहाँ तक कि ब्रिटेन के कुछ वर्तमान जज –जिन्हें विज्ञान की उन्नति, सभ्यता के विस्तार और नियमों की शुध्दता और यथार्थवाद के बावजूद, भयानक अपराध ने भयभीत कर दिया –कह पड़ेः
“आचरण और व्यवहार के बिना कोई संविधान और क़ानून नहीं पाया जा सकता तथा ईमान और विश्वास बिना कोई आचरण परवान नहीं चढ़ सकता।"
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि स्वयं कुछ नास्तिकों और अधर्मियों ने यह स्वीकार किया है कि धर्म, अल्लाह और परलोक में बदला दिये जाने पर विश्वास के बिना, जीवन स्थिर और स्थापित नहीं रह सकता। यहाँ तक कि “फोल्तियर" का कथन हैः
“यदि अल्लाह का अस्तित्व न होता, तो हमारे ऊपर अनिवार्य होता कि हम उसे पैदा करें।"
अर्थात हम लोगों के लिए एक ʻइलाहʼ (पूज्य) का आविष्कार करें, जिसकी कृपा की वह आशा रखें, जिसके अज़ाब (यातना) से डरें तथा सत्कर्म करते हुए दुष्कर्म से बचते हुए उसकी प्रसन्नता तलाश करें।
और एक बार ठठोल करते हुए कहता हैः
“तुम अल्लाह के अस्तित्व में क्यों संदेह प्रकट करते हो? यदि वह न होता, तो मेरी पत्नी मेरे साथ विश्वासघात करती और मेरा नौकर मेरी चोरी कर लेता।"
और “ब्लूतार्क" का कथन हैः
“बिना धरती के एक नगर को स्थापित करना, बिना इलाह (पूज्य) के एक राष्ट्र को स्थापित करने से अधिक आसान है!!"
इस्लामी अक़ीदा की विशेषताएं
इस्लामी अक़ीदा ऐसी विशेषताओं और गुणों का वाहक है, जो अन्य धारणाओं में नहीं हैं। यह निम्नलिखित चीज़ों से प्रदर्शित होता हैः
स्पष्ट अक़ीदाः
यह एक स्पष्ट और आसान अक़ीदा (धारणा) है। इसके अन्दर कोई पेचीदगी और उलझाव नहीं है। इसका सारांश यह है कि इस अनुपम, सुसंचालित, व्यवस्थित और सुदृढ़ संसार के पीछे एक रब पालनहार का हाथ है, जिसने इसे पैदा किया है, व्यवस्थित किया है और इसमें हर चीज़ को एक अनुमान और अंदाज़े से पैदा किया है। इस ʻइलाहʼ या रब का न कोई साझी है, न इसके समान कोई चीज़ है और न इसके बीवी बच्चे हैं:
﴿بَل لَّهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ كُلّٞ لَّهُۥ قَٰنِتُونَ ﴾[3]
“बल्कि आकाश और धरती की सारी चीज़ें उसीके अधिकार में हैं और हर एक उसका आज्ञाकारी है।"
यह एक स्पष्ट और स्वीकार्य अक़ीदा है। क्योंकि बुध्दि सदैव भिन्नता (अनेकता) और अधिकता की बजाय एकता और सम्बन्ध का तक़ाज़ा करती है और सारी चीज़ों को सदा एक ही कारण की ओर लौटाना चाहती है।
प्राकृतिक अक़ीदाः
यह एक ऐसा अक़ीदा है, जो फ़ितरत से अलग और उसके विरुध्द नहीं है, बल्कि यह उसी प्रकार फितरत के अनुसार है, जिस प्रकार कि निर्धारित कुंजी अपने दृढ़ ताले के अनुसार होती है। क़ुर्आन इसी तत्व को स्पष्ट रूप से खुल्लम-खुल्ला बयान करता हैः
﴿فَأَقِمۡ وَجۡهَكَ لِلدِّينِ حَنِيفٗاۚ فِطۡرَتَ ٱللَّهِ ٱلَّتِي فَطَرَ ٱلنَّاسَ عَلَيۡهَاۚ لَا تَبۡدِيلَ لِخَلۡقِ ٱللَّهِۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ﴾٠[4]
“सो, आप एकांत होकर अपना मुख दीन की ओर कर लें। अल्लाह तआला की वह फ़तरत, जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है। अल्लाह तआला के बनाये हुए को बदलना नहीं है। यह सीधा दीन है, किन्तु अधिकांश लोग नहीं समझते।"
और इसी ह़क़ीक़त को ह़दीसे नबवी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी स्पष्ट किया हैः
((كُلُّ مَوْلُوْدٍ يُوْلَدُ عَلَى الْفِطْرَةِ-أَىْ عَلَى الْإِسْلَامِ-، وَ إِنَّمَا أَبَوَاهُ يُهَوِّدَانِهِ، أَوْ يُنَصِّرَانِهِ، أَوْ يُمَجِّسَانِهِ))
“हर पैदा होने वाला (शिशु) फ़ितरत –अर्थात इस्लाम- पर पैदा होता है, किन्तु उसके माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं, ईसाई बना देते हैं या मजूसी (आतिश परस्त) बना देते हैं।"
इससे मालूम हुआ कि इस्लाम ही अल्लाह तआला की फ़ितरत है। इसलिए इसे माता-पिता के प्रभाव की आवश्यकता नहीं है।
जहाँ तक अन्य धर्मों जैसे कि यहूदियत, ईसाइयत और मजूसियत का सम्बन्ध है, तो यह माता-पिता के सिखाये हुए धर्म हैं।
ठोस और सुदृढ़ अक़ीदाः
यह एक ठोस एवं सुदृढ़ और नियमित एवं निर्धारित अक़ीदा है, जिसमें किसी कमी-बेशी, परिवर्तन और हेर-फेर की गुंजाइश नहीं है। इसलिए किसी शासक, वैज्ञानिक संस्था या धार्मिक सम्मेलन को यह अधिकार नहीं है कि वह इसमें कोई चीज़ बढ़ाये अथवा इसमें कोई संशोधन और परिवर्तन करे। हर प्रकार के इज़ाफा या संशोधन एवं अस्वीकार्य है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((مَنْ أَحْدَثَ فِى أَمْرِنَا هذَا مَا لَيْسَ مِنْهُ فَهُوَ رَدٌّ))
“जिसने हमारे इस मामले में कोई नई चीज़ निकाली, वह मर्दूद (अस्वीकार्य) है।"
अर्थात उसी के ऊपर लौटा दिया जायेगा।
और क़ुर्आन इसे नकारते हुए कहता हैः
﴿أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْ شَرَعُواْ لَهُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا لَمۡ يَأۡذَنۢ بِهِ ٱللَّهُۚ﴾[5]
“क्या उन लोगों ने (अल्लाह के) ऐसे साझी बना रखे हैं, जिन्होंने उनके लिए दीन के ऐसे अह़काम निर्धारित कर दिये हैं, जो अल्लाह तआला के फ़रमाये हुए नहीं हैं?"
इस आधार पर हर प्रकार की बिद्अतें, कहानियाँ और ख़ुराफ़ात, जो मुसलमानों की कुछ किताबों में सम्मिलित कर दी गयी हैं या उनके जन-साधारण के बीच फैलायी गयी हैं, बातिल, असत्य और अस्वीकार्य हैं। इस्लाम उन्हें प्रमाणित नहीं करता है और न ही उन्हें इस्लाम के विरुध्द प्रमाण और तर्क के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
प्रमाणित अक़ीदाः
यह एक प्रमाणित अक़ीदा है, जो अपने मसायल को सिध्द करने के लिए केवल पाबंदी और बाध्यता पर ही बस नहीं करता है और दूसरे अक़ीदों और धारणाओं के समान यह नहीं कहता है किः
“अन्धे होकर विश्वास (श्रध्दा) रखो।"
या यह किः
“पहले विश्वास करो, फिर ज्ञान प्राप्त करो।"
या यह किः
“अपनी दोनों आँखों को मूँद लो, फिर मेरी पैरवी करो।"
या यह किः
“अज्ञानता (जिहालत) तक़्वा और परहेज़गारी की बुनियाद है।"
बल्कि उसकी किताब स्पष्ट रूप से कहती हैः
﴿قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ١١١﴾[6]
“इनसे कहो कि यदि तुम सच्चे हो, तो कोई प्रमाण पेश करो।"
इसी प्रकार, केवल दिल और आत्मा को सम्बोधित करने और अक़ीदे के लिए बुनियाद के तौर पर उनपर भरोसा करने पर बस नहीं करता है, बल्कि अपने मसायल को अखण्डनीय (विश्वस्त, प्रबल) प्रमाण, रौशन दलील और स्पष्ट तर्क के साथ पेश करता है, जो बुध्दियों की बाग-डोर को अपने क़ब्ज़े में ले लेती हैं और दिलों तक अपना रास्ता बना लेती हैं। अक़ीदे के उलेमा कहते हैं:
अक़्ल (बुध्दि) नक़्ल (वह बातें जिनका आधआर रिवायत या सिमाअ है) की बुनियाद है और सही नक़्ल (मन्क़ूल वस्तु) स्पष्ट अक़्ल (विवेक, बुध्दि) के विरुध्द नहीं होता है।
चुनांचे हम देखते हैं कि कुर्आन उलूहियत (इबादत) के मसले में, नफ़्स (आत्मा) और इतिहास से अल्लाह तआला के वजूद, उसकी वह़्दानियत (एकत्व) और उसके कमाल (सम्पूर्णता) पर दलीलें पेश करता है।
और बअ्स (मरने के उपरान्त पुनः जीवित किए जाने) की सम्भावना पर मनुष्य को प्रथम बार पैदा करने, आसमानों और ज़मीन को पैदा करने और मुर्दा ज़मीन को ज़िन्दा (हरी-भरी) करने के द्वारा तर्क स्थापित करता है, और उसकी ह़िक्मत (रहस्य) पर, भलाई करने वाले को सवाब (प्रतिफल) देने और बुराई करने वाले को सज़ा देने में खुदाई (ईश्वरीय) न्याय और इन्साफ़ के द्वारा तर्क स्थापित करता हैः
﴿لِيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَسَٰٓـُٔواْ بِمَا عَمِلُواْ وَيَجۡزِيَ ٱلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ بِٱلۡحُسۡنَى﴾[7]
“ताकि अल्लाह लआला बुरे कर्म करने वालों को उनके कर्मों का बदला दे, और सत्कर्म करने वालों को अच्छा प्रतिफल प्रदान करे।"
अक़ीदे के अन्दर
इस्लाम का संतुलन
इस्लामी अक़ीदा सारे पहलुओं से संतुलित होने के कारण अन्य धर्मों के अक़ीदों से श्रेठ और भिन्न है। यह विशेषता उसे आसान और संतुष्टि के क़ाबिल बना देती है, जो स्वीकारने और पैरवी के योग्य है। इस विशेषता और अनुपमता को जानने के लिए आगे आने वाली पंक्तियों को पढ़ें:
1. इस्लाम उन ख़ुराफ़ातियों, जो एतिक़ाद के अन्दर सीमा को पार कर जाते हैं, हर चीज़ को सच्चा मान लेते हैं और बिना प्रमाण के उसपर विश्वास करने लगते हैं, तथा उन भौतिकवादियों के बीच एतिक़ाद के अन्दर संतुलन पैदा करता है, जो चेतना के परे सारी चीज़ों को नकारते हैं और फ़ितरत की आवाज़, चेतना की पुकार और मोजिज़ा (चमत्कार) की चीख को सुनने से भागते हैं।
चुनांचे इस्लमाम एतिक़ाद और विश्वास की दावत देता है; किन्तु, केवल उसीपर, जिसपर क़तई दलील और निश्चित प्रमाण स्थापित हो। इसके सिवा अन्य चीज़ों को वह नकार देता है और भ्रम शुमार करता है। उसका सदा यह नारा हैः
﴿قُلۡ هَاتُواْ بُرۡهَٰنَكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ﴾[8]
“यदि तुम सच्चे हो, तो अपने प्रमाण लाकर पेश करो।"
2. वह संतुलित है उन मुलह़िदों (अधर्मियों) के बीच, जो किसी भी इलाह (पूज्य) को नहीं मानते, अपने सीनों में फ़ितरत की आवाज़ को दबा देते हैं और अपने सरों में बुध्दि की पुकार को चौलेंज करते हैं..... और उन लोगों के बीच जो अनेक माबूदों (ईश्वरों) को मानते हैं, यहां तक कि वह बकरियों और गायों को भी पूजने लगते हैं और मूर्तियों और पत्थरों को ईश्वर बना लेते हैं।
चुनांचे इस्लाम एक इलाह (पूज्य) पर विश्वास रखने की दावत देता है, जिसका कोई साझी नहीं। न उसने किसी को जना है, न वह किसी से जना गया है और न कोई उसका हमसर (समवर्ती) है। उसके अतिरिक्त जो लोग भी हैं और जो चीज़ें भी हैं, वह मख़लूक़ हैं। वह लाभ और हानि, मौत और ज़िन्दगी और दोबारा जीवित होने का अधिकार नहीं रखते हैं। इसलिए उनको पूज्य बनाना शिर्क, अत्याचार और स्पष्ट पथभ्रष्टता हैः
﴿وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّن يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَن لَّا يَسۡتَجِيبُ لَهُۥٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَهُمۡ عَن دُعَآئِهِمۡ غَٰفِلُونَ ﴾[9]
“और उस व्यक्ति से बढ़कर गुमराह कौन होगा, जो अल्लाह के सिवा ऐसों को पुकारता है, जो क़यामत तक उसकी प्रार्थना स्वीकार न कर सकें, बल्कि उनके पुकारने से मात्र बेख़बर (निश्चेत) हों!"
3. और वह संतुलित है, उन लोगों के बीच, जो संसार को ही अकेला सत्य अस्तित्व समझते हैं और इसके अतिरिक्त उन सारी चीज़ों को, जिन्हें आँख से देख और हाथ से छू नहीं सकते, असत्य, ख़ुराफ़ात और भरम समझते हैं,..... और उन लोगों के बीच, जो संसार को एक भ्रम समझते हैं, जिसकी कोई ह़क़ीक़त नहीं, उसे चटियल मैदान में चमकती हुई रेत के समान समझते हैं, जिसे प्यासा व्यक्ति दूर से पानी समझता है, किन्तु जब उसके पास पहुँचता है, तो उसे कुछ भी नहीं पाता।
चुनांचे इस्लाम संसार के वजूद को एक वास्तविकता समझता है, जिसमें कोई संदेह नहीं है। किन्तु वह इस ह़क़ीक़त से एक दूसरी ह़क़ीक़त की ओर सफ़र करता है, जो इससे अधिक बड़ी ह़क़ीक़त है। वह है, वह हस्ती जिसने इस संसार का निर्माण किया, इसे व्यवस्थित किया और इसके संचालन में लगा हुआ है। वह हस्ती, अल्लाह तआला की हैः
﴿إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ١٩٠ ٱلَّذِينَ يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِهِمۡ وَيَتَفَكَّرُونَ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبَّنَا مَا خَلَقۡتَ هَٰذَا بَٰطِلٗا سُبۡحَٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ﴾[10]
“आसमानों और ज़मीन की रचना और रात दिन के हेर-फेर में, सच-मुच बुध्दिमानों के लिए निशानियां है, जो अल्लाह तआला का ज़िक्र खड़े और बैठे और अपनी करवटों के बल लेटे हुए करते हैं और आसनानों और धरती की पैदाइश में सोच-विचार करते हैं, और कहते हैं: ऐ हमारे परवरदिगार! तूने यह निरर्थक नहीं बनाया। तू पाक है। सो, हमें आग के अज़ाब (यातना) से बचा ले।"
4. वह संतुलित है, उन लोगों के बीच, जो मनुष्यों को पूज्य (इलाह) बनाते हैं, उन्हें रुबूबियत की विशेषताओं से सम्मानित करते हैं और उन्हीं को अपना इलाह (पूज्य) समझते हैं कि वह जो चाहते हैं करते हैं और जो चाहते हैं फ़ैसला करते हैं, तथा उन लोगों के बीच, जिन्होंने आर्थिक, सामाजिक या धार्मिक व्यवस्थाओं और क़ानूनों को बन्दी बना लिया है। सो, उसका उदाहरण हवा के झोंके में पर (पंख) या कठपुथली के समान है, जिसके धागों को समाज, इक्तिसाद या भाग्य हिला रहा है।
चुनांचे इस्लाम की दृष्टि में मनुष्य एक ज़िम्मेदार और मुकल्लफ़ (उत्तरदाता, नियम बध्द) मुख़्लूक़ है। संसार का सरदार है। अल्लाह का एक बन्दा है। अपने आस-पास की चीज़ों को बदलने की उतनी ही शक्ति रखता है, जितनी अपने आपको बदलने की। (अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः)
﴿إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُغَيِّرُ مَا بِقَوۡمٍ حَتَّىٰ يُغَيِّرُواْ مَا بِأَنفُسِهِمۡۗ﴾[11]
“निःसंदेह, अल्लाह तआला किसी क़ौम की ह़ालत नहीं बदलता, जबतक वह स्वंय उसे न बदलें, जो उनके दिलों में है।"
5. वह संतुलित है उन लोगों के बीच, जो नबियों को पवित्र मानते हैं, यहां तक कि उन्होंने उन्हें उलूहियत (ईश्वरता) या इलाह (ईश्वर) के पुत्रत्व के पद पर पहुंचा दिया, तथा उन लोगों के बीच, जिन्होंने उन्हें झुठलाया, उनपर आरोप लगाए और यातनाओं के पहाड़ तोड़े।
पैग़म्बर हमारे समान मनुष्य हैं। खाना खाते हैं और बाज़ारों में चलते-फिरते हैं। उनमें से अधिकांश के पास बीवी-बच्चे भी हैं। उनके और उनके अतिरिक्त अन्य लोगों के बीच अन्तर मात्र यह है कि अल्लाह तआला ने उनपर वह़्य (ईश्वाणी) के द्वारा उपकार तथा मोजिज़ात (चमत्कारों) के द्वारा उनका समर्थन और सहयोग किया हैः
﴿قَالَتۡ لَهُمۡ رُسُلُهُمۡ إِن نَّحۡنُ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُكُمۡ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَمُنُّ عَلَىٰ مَن يَشَآءُ مِنۡ عِبَادِهِۦۖ وَمَا كَانَ لَنَآ أَن نَّأۡتِيَكُم بِسُلۡطَٰنٍ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ﴾[12]
“उनके पैग़म्बरों ने उनसे कहा कि यह तो सच है कि हम, तुम जैसे ही इन्सान हैं, किन्तु अल्लाह तआला अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है, अपनी अनुकम्पा करता है। अल्लाह के हुक्म (अनुमति) के बिना हमारे बस की बात नहीं कि हम तुम्हें कोई मोजिज़ा (चमत्कार) दिखायें। और ईमान वालों को केवल अल्लाह तआला ही पर भरोसा रखना चाहिए।"
6. वह संतुलित है, उन लोगों के बीच, जो संसार की वास्तविकताओं की जानकारी प्राप्त करने के स्रोत की ह़ैसियत से केवल बुध्दि (अक़्ल) पर विश्वास करते हैं, और उन लोगों के बीच, जो केवल वह़्य और इल्हाम पर विश्वास करते हैं। किसी चीज़ को नकारने या स्वीकारने में बुध्दि की योगदान को नहीं मानते।
जबकि इस्लाम बुध्दि पर विश्वास रखता है। सोच-विचार और ग़ौर व फ़िक्र की दावत देता है, उसके अन्दर जुमूद और अनुकरण को नकारता है, आदेशो और निषेधों से संबोधित करता है, और संसार की महान वास्तविकताओं; अल्लाह ताआला के वजूद और नबूअत के दावे की सच्चाई को सिध्द करने के लिए उसपर भरोसा करता है। वह वह़्य पर इस ह़ैसियत से विश्वास रखता है कि वह बुध्दि की पूर्ति करने वाली और उन चीज़ों में उसकी सहायक और मददगार है, जिनमें बुध्दियाँ भटक जाती हैं, मतभेद का शिकार हो जाती हैं और जिन पर शहवतों और ख़्वाहिशात का दबाव और बल चढ़ जाता है। उसकी उस चीज़ की ओर मार्गदर्शन और रहनुमाई करने वाली है, जो उससे सम्बन्धित नहीं है और जो उसके बस में नहीं है। जैसे की ग़ैबिय्यात (अदृश्य चीज़ें), समइय्यात (वह बातें जिनका आधार वह़्य हो जैसे जन्नत, जहन्नम आदि) और अल्लाह तआला की इबादत के तरीक़े। दुनिया में भलाई अथवा बुराई करने पर, मरने के बाद दूसरी दुनिया में सवाब और सज़ा के रूप में न्यायपूर्ण ख़ुदाई (ईश्वरीय) बदला दिए जाने पर विश्वास रखने में, इस फ़ितरी और असली अह़सास को समर्थन मिलता है कि उस बदकार और अत्याचार से बदला लेना अनिवार्य और आवश्यक है, जिसने सांसारिक न्याय से अपना पीछा छुड़ा लिया है, और उस व्यक्ति को सवाब आवश्यक है, जिसने भलाई और नेकी की है और उसका प्रचारक रहा है, परन्तु उसे घृणा और उत्पीड़न के सिवा कुछ न मिला हो..... तथा सदाचारियों और दुराचारियों, नेक और बुरे लोगों, सुधार करने वालों और भ्रष्टाचारियों के बीच बराबरी न की जायः
﴿أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ ٱجۡتَرَحُواْ ٱلسَّئَِّاتِ أَن نَّجۡعَلَهُمۡ كَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَوَآءٗ مَّحۡيَاهُمۡ وَمَمَاتُهُمۡۚ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ٢١ وَخَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَلِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۢ بِمَا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ٢٢﴾[13]
“क्या उन लोगों का, जो बुरे काम करते हैं, यह गुमान है कि हम उन्हें उन लोगों जैसा कर देंगे, जो ईमान लाये और नेक काम किये कि उनका मरना जीना बराबर हो जाय, बुरा है वह फ़ैसला, जो वह कर रहे हैं। और आसमानों और ज़मीन को अल्लाह ने बहुत न्याय के साथ पैदा किया है और ताकि हर व्यक्ति को उसके किये हुए काम का पूरा बदला दिया जाय और उनपर अत्याचार न किया जाय।"
जन्नत और जहन्नम और उनमें जो कुछ ह़िस्सी (ज़ाहिरी) और मानवी (बातिनी) नेमत और अज़ाब है उस पर ईमान रखना, मनुष्य की वस्तुस्थिति के अनुसार है, इस ह़ैसियत से कि वह शरीर और आत्मा से मिलकर बना है और उनमें से हर एक की कुछ आशाएं और आवश्यकताएं हैं। तथा इस ह़ैसियत से भी कि कुछ लोग ऐसे हैं, जिनके लिए शरीर को छोड़कर केवल आत्मा की नेमत या अज़ाब पर्याप्त नहीं है। जिस प्रकार कि उनमें से कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें आत्मा को छोड़कर केवल शरीर की नेमत या यातना संतुष्ट नहीं कर सकती है। इसीलिए जन्नत में खाना, पानी, बड़ी-बड़ी आँखों वाली ह़ूरें (सुन्दरियाँ) और महानतम अल्लाह की प्रशंसा है.... और जहन्नम में ज़न्जीरें, तौक़, थूहड़, खून-पीप और कांटेदार पेड़ों का भोजन होगा, जो न मोटा करेगा और न भूख मिटाएगा, और उनके लिए इसके उपरान्त अपमान, ज़िल्लत और रुसवाई होगी, जो सबसे अधिक कठोर और कष्ट दायक होगी।
जीवन के तमाम क्षेत्रों में इस्लाम का यथार्थवाद
इस्लाम के नियम, उसके सिध्दांत और उसकी शिक्षाएं मानव जीवन के हर क्षेत्र में यथार्थवाद पर आधारित हैं। वह मानव जीवन की परिस्थितियों, आवश्यकताओं और विभिन्न हालात पर नज़र रखता है। इस सच्चाई से पर्दा उठाने के लिए हम इस यथार्थवाद को केवल दो क्षेत्रों के द्वारा स्वष्ट करेंगेः
प्रथमः इबादतों के अन्दर इस्लाम का यथार्थवादः
इस्लाम कई वास्तविक एवं यथार्थानुरूप इबादतों के साथ आया है। क्योंकि वह इन्सान के अत्मा की अल्लाह तआला से सम्पर्क स्थापित करने की प्यास को जानता है। इसलिए उसपर ऐसी इबादतें फ़र्ज़ क़रार दिया है, जो उसकी प्यास को बुझाती, उस की तेज भूक को मिटाती और उसके हृदय के ख़ालीपन (रिक्तता) की पूर्ति करती हैं। किन्तु, उसने इन्सान की सीमित शक्ति को ध्यान में रखा है। इसीलिए, उसे किसी ऐसी चीज़ का बाध्य नहीं किया है, जो उसे कठिनाई और तंगी में डाल देः
﴿وَمَا جَعَلَ عَلَيۡكُمۡ فِي ٱلدِّينِ مِنۡ حَرَجٖۚ﴾[14]
“और दीन के मामले में उसने तुमपर कोई तंगी नहीं डाली है।"
(क) उदाहरणतः इस्लाम ने जीवन की वास्तविकता और ह़क़ीक़त तथा उसके ख़ानदानी, समाजी और आर्थिक परिस्थितियों और रोज़ी की तलाश में धरती के समतल और आसान रास्तों में भाग-दोड़ को ध्यान में रखा है। इसलिए मुसलमानों से इस बात का मुतालबा नहीं किया है कि वह पादरियों के समान गिरजाघरों में इबादत के लिए सारी चीजों से कटकर एकांत हो जायें। बल्कि यदि वह ऐसा करना चाहे, तब भी उसे इस एकांत की अनुमति नहीं दी है। मुसलमान को कुछ ऐसी इबादतों का बाध्य किया है, जो उसे उसके रब (पालनहार) से जोड़ती तो हैं, परन्तु उसे उसके समाज से काटती नहीं हैं। उन (इबादतों) से वह अपनी आख़िरत को आबाद तो करता है, परन्तु उनके पीछे अपनी दुनिया को बर्बाद नहीं करता। इस्लाम ने उनसे इस बात का मुतालबा नहीं किया है कि वह जीवन भर रूह़ानियत की ख़ालिस फ़िज़ा में ऊँची उड़ान भड़ते रहें, बल्कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने कुछ साथियों से फ़रमायाः “एक घंटा और एक घंटा।"[15]
(ख) इस्लाम को इंसान के अन्दर उकताहट और उदासीनता की फ़ितरत का ज्ञान है। इसलिए उसने विभिन्न प्रकार की इबादतों को अनिवार्य किया है। कुछ इबादतें शारीरिक हैं, जैसे नमाज़ और रोज़ा। कुछ इबादतों का सम्बन्ध माल से है, जैसे ज़कात और सदक़ा व ख़ैरात और तीसरी क़िस्म की इबादतें वह हैं, जो माल और शरीर दोनों से सम्बन्धित हैं, जैसे ह़ज और उम्रा। कुछ इबादतों को दैनिक किया गया है, जैसे नमाज़। कुछ इबादतों को वार्षिक या मौसमी क़रार दिया गया है, जैसे रोज़ा और ज़कात और कुछ को जीवन में केवल एक बार अनिवार्य किया गया है, जैसे ह़ज। फिर जो व्यक्ति अधिक भलाई और अल्लाह तआला की निकटता चाहता है, उसके लिए ऐच्छिक इबादतों का द्वार खोल दिया गया है और नफली इबादतें करना वैध कर दिया गया हैः
﴿فَمَن تَطَوَّعَ خَيۡرٗا فَهُوَ خَيۡرٞ لَّهُ﴾[16]
“जो व्यक्ति अपनी इच्छा से नेकी और भलाई करना चाहे, तो वह उसके लिए श्रेष्ठ है।"
(ग) इस्लाम ने मनुष्य के आपातकालीन परिस्थितियों, जैसे यात्रा और बीमारी आदि को ध्यान में रखा है। इसी लिए रुख़्सतों और आसानियों को वैध किया है, जो अल्लाह तआला को पसन्द है। उदाहरण स्वरूप, बीमार का अपनी शक्ति अनुसार बैठकर या पहलू के बल नमाज़ पढ़ना, ज़ख़्मी आदमी का यदि स्नान और वज़ू के लिए पानी प्रयोग करना हानिकारक हो तो तयम्मुम करना, बीमार का रमज़ान में रोज़ा न रखना और बाद में अनिवार्य रूप से क़ज़ा करना, गर्भवति और दूध पिलाने वाली महिलाओं का यदि उन्हें अपनी या अपने बच्चों की जान का भय हो तो रोज़ा न रखना तथा अधिक आयु वाले बूढ़े व्यक्ति और बूढ़ी स्त्री का रोज़ा न रखना और हर दिन के बदले फ़िद्या के रूप में एक मिस्कीन (निर्धन) को खाना खिलाना।
इसी प्रकार यात्री के लिए चार रक्अत वाली नमाज़ों को क़स्र (कम) करना और ज़ुह्र तथा अस्र एवं मग़्रिब तथा इशा की नमाज़ों को जमा करके एक साथ पढ़ना, चाहे दोनों नमाज़ों को पहली नमाज़ के समय पढ़ी जाय अथवा दोनों को दूसरी नमाज़ के समय.....। यह सारी रुख़्सतें लोगों की वास्तविक स्थिति का लिह़ाज़ करते हुए और उनकी नित-नयी और परिवर्तनशील परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए प्रदान की गयी हैं। जैसे कि रोज़े की आयत में अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः
يُرِيدُ ٱللَّهُ بِكُمُ ٱلۡيُسۡرَ وَلَا يُرِيدُ بِكُمُ ٱلۡعُسۡرَ[17]
“अल्लाह तआला का इरादा तुम्हारे साथ आसानी का है, सख़्ती का नहीं।"
द्वितीयः व्यवहार के अन्दर इस्लाम का वास्तविकतावाद:
इस्लाम ने ऐसे वास्तविक अख़्लाक़ व व्यवहार को पेश किया है, जिसने जन-साधारण की साधारण शक्ति (क्षमता) को ध्यान में रखते हुए इन्सानी कमज़ोरी, इन्सानी जज़्बात और भौतिक तथा मानसिक आवश्यकताओं को स्वीकार किया है।
(क) उदाहरण के तौर पर इस्लाम ने इस्लाम में प्रवेश करने वाले पर यह अनिवार्य नहीं किया है कि वह अपनी धन-सम्पत्ति और रहन-सहन की चीज़ों का परित्याग कर दे, जैसा कि इन्जील मसीह़ के बारे में उल्लेख करता है कि उन्होंने अपनी पैरवी करने के इच्छुक लोगों से कहाः
“अपने माल-धन को बेच दो, फिर मेरे पीछे चलो।"
और न ही क़ुर्आन ने उस प्रकार की कोई बात कही है, जिस प्रकार इन्जील का कहना हैः
“धनी व्यक्ति आसमानों की बादशाहत में उस समय तक प्रवेश नहीं पा सकता, जब तक कि ऊँट सूई के नाके में प्रवेश न कर ले।"
बल्कि इस्लाम ने व्यक्ति और समाज की धन और माल की ज़रूरत को ध्यान में रखा है। चुनांचे उसे जीवन का स्थापितकर्ता समझा है। उसे बढ़ाने, विक्सित करने और उसकी सुरक्षा करने का आदेश दिया है। अल्लाह तआला ने क़ुर्आन के अन्दर कई स्थानों में मालदारी और धन की नेमत के द्वारा इन्सान पर उपकार का उल्लेख किया है। अल्लाह तआला ने अपने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से फ़रमायाः
﴿ وَوَجَدَكَ عَآئِلٗا فَأَغۡنَىٰ﴾[18]
“और तुझे निर्धन पाकर धनी नहीं बनाया?"
और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
((مَا نَفَعَنِى مَالُ أَحَدٍ كَمَالِ أَبِىْ بَكْرٍ))[19]
“अबू बक्र के धन की तरह किसी और धन ने मुझे लाभ नहीं पहुँचाया।"
और अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने फरमायाः
((نِعْمَ الْمَالُ الصّالِحُ لِلرَّجُلِ الصَّالِحِ))[20]
“नेक आदमी के लिए पाक और शुध्द माला क्या ही बेहतरीन पूंजी है!"
(ख) क़ुर्आन और सुन्नत में इस प्रकार की कोई बात नहीं आई है, जिस प्रकार इन्जील में मसीह़ के कथन आए हैं:
“अपने दुश्मनों से प्रेम करो.... अपने को बुरा-भला कहने वालों के लिए बरकत की दुआ करो..... जो तुम्हारे दाहिने गाल पर मारे, उसे बायाँ गाल भी पेश कर दो.....और जो तुम्हारी क़मीस चुरा ले, उसे अपना तहबन्द भी दे दो।"
यह चीज़ सीमित अवस्था में और किसी विशेष स्थिति के उपचार के लिए वैध हो सकती है, किन्तु प्रत्येक स्थिति में, हर वातावरण में, हर ज़माने में और सारे लोगों के लिए सामान्य निर्देश और सुझाव के रूप में उचित नहीं है। क्योंकि साधारण इन्सान से अपने दुश्मन से मुहब्बत करने और उसे बुरा-भला कहने वाले को आशीर्वाद देने का मुतालबा करना, उसके सहन और बर्दाश्त से अधिक बोझ डालने के मायने में है। इसी लिए इस्लाम ने मनुष्य से अपने दुश्मन के साथ न्याय से काम लेने का मुतालबा करने पर ही बस किया हैः
﴿وَلَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شَنََٔانُ قَوۡمٍ عَلَىٰٓ أَلَّا تَعۡدِلُواْۚ ٱعۡدِلُواْ هُوَ أَقۡرَبُ لِلتَّقۡوَىٰۖ﴾[21]
“किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें अन्याय करने पर न उभारे, न्याय किया करो, जो तक़्वा के अधिक निकट है।"
इसी प्रकार दाहिने गाल पर मारने वाले के लिए बायाँ गाल भी पेश कर देना, ऐसा काम है, जो लोगों के दिलों पर बहुत भारी गुज़रता है, बल्कि बहुत से लोगों के लिए ऐसा करना दुश्वार और कठिन है। यह भी हो सकता है कि यह काम दुराचारी और बुरे लोगों को नेक और सदाचारी लोगों पर निडर और साहसी बना दे। कभी–कभार -कुछ हालतों में और कुछ लोगों के साथ- अनिवार्य हो जाता है कि बुरे और बदमाश लोगों को क्षमा करने की बजाय वैसा ही दण्ड दिया जाय, जैसा अत्याचार उन्होंने क्या था, ताकि ऐसा न हो कि वह प्रसन्नता का अनुभव करें और अधिक ज़्यादती और अत्याचार करने लगें।
(ग) इस्लामी अख़्लाक़ वास्तविकता में यह भी है कि उसने लोगों के बीच स्वभाविक और अमली अन्तर तथा फ़र्क़ को स्वीकार किया है। क्योंकि सारे लोग ईमान की शक्ति, अल्लाह के आदेशों का पालन करने, उसकी निषेध की हुई बातों से बचने और ऊँचे आदर्शों को अपनाने में एक ही श्रेणी और एक ही दर्जे के नहीं होते हैं।
चुनांचे एक श्रेणी इस्लाम की है, दूसरी श्रेणी ईमान की है और तीसरी श्रेणी एहसान की है, जो कि सर्वोच्च श्रेणी है। जैसा कि ह़दीसे जिब्रील में इसकी ओर संकेत है। प्रत्येक श्रेणी के कुछ लोग हैं।
इसी प्रकार कुछ लोग गुनाहों के द्वारा अपने ऊपर अत्याचार करने वाले हैं, कुछ लोग मध्य श्रेणी के हैं और कुछ लोग नेकियों और भलाइयों में जल्दी करने वाले हैं। जैसा कि अल्लाह तआला ने क़ुर्आन करीम में बयान किया है।
1. इस अर्थ की पूर्ति इससे भी होती है कि इस्लामी अख़्लाक़ ने मुत्तक़ियों के बारे में यह अनिवार्य नहीं किया है कि वह हर बुराई से पवित्र और हर गुनाह से पाक हों। मानो कि वह परों वाले फ़रिश्ते हैं। बल्कि उसने इस बात को ध्यान में रखा है कि मनुष्य मिट्टी और आत्मा से मिलकर बना है। यदि आत्मा उसे कभी ऊँचा उठाती है, तो मिट्टी उसे कभी नीचे गिरा देती है। जबकि मुत्तक़ियों की विशेषता यह है कि वह क्षमा याचना करने वाले और अल्लाह की ओर लौटने वाले होते हैं। जैसा कि अल्लाह तआला ने अपने इस फर्मान में उनकी विशेषता का उल्लेख किया है:
﴿وَٱلَّذِينَ إِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةً أَوۡ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ ذَكَرُواْ ٱللَّهَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ لِذُنُوبِهِمۡ وَمَن يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ إِلَّا ٱللَّهُ وَلَمۡ يُصِرُّواْ عَلَىٰ مَا فَعَلُواْ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ١٣٥﴾[22]
“जब उनसे कोई बेहूदा (अश्लील) काम हो जाय या कोई गुनाह कर बैठें, तो तुरन्त अल्लाह का ज़िक्र और अपने गुनाहों के लिए क्षमा माँगते हैं, वास्तव में अल्लाह के अतिरिक्त कौन गुनाहों को क्षमा कर सकता है? और वह ज्ञान के होते हुए किसी बुरे काम पर हठ नहीं करते हैं।"
इस्लाम में
क़ानून साज़ी के स्रोत
जब मनुष्य के पास क़ानून साज़ी और आदेश व निषेध का स्रोत, मनुष्य द्वारा निर्मित क़वानीन और संविधान की बजाय, उसका पालनहार और जन्मदाता होता है, तो उसकी अनेक महत्वपूर्ण फ़ायदे प्राप्त होते हैं। इसका कारण स्पष्ट है और वह है, इस संविधान के बनाने वाले अर्थात अल्लाह तआला का कमाल और सम्पूर्णता। जबकि अन्य क़वानीन और संविधानों के साथ मनुष्य की कमज़ोरी और कोताही लगी रहती है।
इस्लामी क़वानीन के फ़ायदों को निम्न प्रकार से उल्लेखित किया जा सकता हैः
पारस्परिक टकराव और मतभेद से सुरक्षाः
शरीअत का स्रोत मनुष्य के पालनहार और सृष्टा के होने का सर्वप्रथम प्रभाव यह है कि वह उस पारस्परिक टकराव और मतभेद से सुरक्षित है, जिससे इन्सानी क़वानीन व संविधान और परिवर्तित धर्म पीड़ित हैं।
मनुष्य की यह प्रकृति है कि एक युग के लोग दूसरे युग के लोगों से मतभेद रखते हैं। बल्कि एक ही युग में एक समय के लोग दूसरे समय के लोगों से, एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों से, बल्कि एक ही देश में एक प्रदेश के लोग दूसरे प्रदेश के लोगों से और एक ही प्रदेश में एक परिवेश के लोग दूसरे पिरवेश के लोगों के मतभेद रखते हैं।
हम प्रायः देखते हैं कि जवानी की अवस्था में एक व्यक्ति के विचार, अधेड़पन या बुढ़ापे की अवस्था के विचार के विरुध्द होते हैं और प्रायः हम देखते हैं कि कठिनाई और निर्धनता की घड़ी में आदमी के विचार, ख़ुश्हाली और मालदारी की अवस्था के विचार से भिन्न होते हैं।
जब मनुष्य की बुध्दि की यह प्रकृति है और आवश्यक रूप से वह समय, स्थान, परिस्थितियों और दशाओं से प्रभावित होता है, तो फिर उसके द्वारा बनाये गये क़वानीन के पारस्परिक टकराव और मतभेद से सुरक्षित होने की कल्पना कैसे की जा सकती है? चाहे वह क़वानीन कल्पना और विश्वास से सम्बन्धित हों, या व्यवहार और अमल से,.... निःसंदेह पारस्परिक टकराव और अन्तर उसका एक आवश्यक अंग है।
इस पारस्परिक टकराव की झल्कियों में से एक यह है कि प्रत्येक ख़ुदसाख़्ता (गढ़े हुए) और परिवर्तित धार्मिक और इन्सानी क़वानीन और व्यवस्थाओं में हम अतिश्योक्ति देख और अनुभव कर सकते हैं। जैसा कि यह ह़क़ीक़त आत्मिक और भौतिक, व्यक्तिगत और सामुहिक, वास्तविकता और आदर्शता, अक़्ल और दिल, दृढ़ता और परिवर्तन, और इनके अतिरिक्त अन्य विपरीत चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण से स्पष्ट है, जिसके बारे में प्रत्येक धर्म या क़ानून केवल एक ही पहलु पर नज़र रखता है, दूसरे पहलु से बेपरवाही बरतता है या उसपर अत्याचार करता है। किन्तु इस्लामी क़ानून इसके विपरीत है। क्योंकि उसका स्रोत मनुष्य का उत्पत्तिकर्ता है। मनुष्य नहीं!
पक्षपात एवं स्वेच्छा से पाक होनाः
इस्लाम की रब्बानियत (अर्थात रब की ओर से होने) के फ़ायदों में से एक यह है कि वह नितांत न्याय पर आधारित है और पक्षपात, अत्याचार और ख़्वाहिशात की पैरवी से पवित्र है, जिससे मनुष्य सुरक्षित नहीं रह सकता, चाहे वह कोई भी हो।
हां, कोई भी ग़ैर मासूम व्यक्ति –ज्ञान और आत्मसंयम के मामले में उसका स्तर कितना ही ऊँचा क्यों न हो- ख़्वाहिशात और व्यक्तिगत, खानदानी, क्षेत्रीय, दलीय और राष्ट्रीय रुझानों और झुकाव से प्रभावित होए बिना नहीं रह सकता। अगरचे वह ज़ाहिरी तौर पर न्याय प्रिय और ग़ैरजानिबदारी का पैरोकार दिखता हो।
यदि मनुष्य की कोई निर्धारित इच्छा या विशेष रुझान हो, जो उसकी रहनुमाई और उसके विचार को परिवर्तित करता हो और उसके फैसले को उसी ओर मोड़ने वाला हो जिसका वह इच्छुक और प्रेमी है, तो यह गम्भीर समस्या है। इसके अन्दर इन्सान की ज़ाती कोताही व अभाव के साथ साथ, पैरवी की जाने वाली ख़्वाहिश भी एकत्र हो गयी। इस प्रकार समस्या और गम्भीर हो गयीः
﴿وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّنِ ٱتَّبَعَ هَوَىٰهُ بِغَيۡرِ هُدٗى مِّنَ ٱللَّهِۚ﴾[23]
“उस व्यक्ति से बढ़कर पथ-भ्रष्ट कौन होगा, जो अल्लाह तआला के मार्गदर्शन के बिना अपनी ख़्वाहिशात के पीछे चलने वाला हो?"
किन्तु जहाँ तक “अल्लाह तआला की व्यवस्था" और “अल्लाह तआला के क़ानून" का प्रश्न है, तो स्पष्ट है कि उसे लोगों के पालनहार ने लोगों के लिए बनाया है। उस हस्ती ने उसे बनाया है, जो समय और स्थान से प्रभावित नहीं होती है। इसलिए कि वही समय और स्थान को पैदा करने वाली है। उसपर ख़्वाहिशात और रुझानात का बस नहीं चलता है, क्योंकि वह ख़्वाहिशात व रुझानात से पवित्र है। वह हस्ती किसी राष्ट्र, रंग और दल का पक्ष नहीं लेती है, इसलिए कि वह सबका पालनहार है और सबलोग उसके ग़ुलाम हैं। इसलिए उसके बारे में एक दल को छोड़कर दूसरे दल का, एक नस्ल को छोड़कर दूसरे नस्ल का और एक राष्ट्र को छोड़कर दूसरे राष्ट्र का पक्ष लेने और जानिबदारी करने की कल्पना नहीं की जा सकती।
सम्मान और पैरवी करने में सरलताः
इसी प्रकार इस शरीअत की विशेषताओं में से एक विशेषता यह भी है कि इसकी ईश्वरीयता व्यवस्था या क़ानून को पवित्रता और सम्मान से सुसज्जित करती है, जो मनुष्य के बनाये हुए किसी व्यवस्था और क़ानून में नहीं पाया जाता है।
यह सम्मान और पवित्रता यहां से जन्म लेता है कि मोमिन अल्लाह तआला के कमाल (पूर्णता) और उसके अपनी तख़्लीक (उत्पत्ति) और आदेश में हर प्रकार की कमी से पाक होने का एतिक़ाद रखता है। वह इस बात पर भी यक़ीन रखता है कि अल्लाह तआला ने हर चीज़ को बेहतर रूप में पैदा किया है और हर चीज़ को अपनी कारीगरी से सुदृढ़ किया है। जैसा कि अल्लाह तआला ने अपनी किताब में फ़रमाया हैः
﴿صُنۡعَ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ أَتۡقَنَ كُلَّ شَيۡءٍۚ﴾[24]
“यह अल्लाह तआला की कारीगरी है, जिसने हर चीज़ को सुदृढ़ बनाया है।"
इसी प्रकार अल्लाह तआला ने अपनी शरीअत और उतारी हुई किताब को भी सुदृढ़ बनाया है। जैसा कि अल्लाह तआला ने क़ुर्आन करीम के बारे में फ़रमाया हैः
﴿كِتَٰبٌ أُحۡكِمَتۡ ءَايَٰتُهُۥ ثُمَّ فُصِّلَتۡ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ خَبِيرٍ ١﴾[25]
“यह एक ऐसी किताब है कि उसकी आयतें सुदृढ़ की गयी हैं, फिर स्पष्ट रूप से उनकी व्याख्या की गयी है, एक ह़कीम (तत्वदर्शी) सर्वज्ञानी की ओर से।"
सो, उसने जो कुछ पैदा किया और मुक़द्दर किया है, उसमें ह़िक्मत वाला है और जो कुछ उसने आदेश दिया है और मनाही की है, उसमें वह ह़िक्मत वाला है। (अल्लाह तआला का फ़रमान हैः)
﴿مَّا تَرَىٰ فِي خَلۡقِ ٱلرَّحۡمَٰنِ مِن تَفَٰوُتٖۖ﴾[26]
“तुम्हें रह़मान (अल्लाह) की उत्पत्ति में कोई गड़बड़ी नहीं दिखायी देगी।"
तुम्हें रह़मान की शरीअत में कोई दोष और बेजोड़पन नहीं मिलेगा। सो, पवित्र है अल्लाह तआला, जो सर्वश्रेष्ठ पैदा करने वाला और तमाम ह़ाकिमों का ह़ाकिम है।
इस सम्मान और तक़्दीस के अधीन यह है कि मनुष्य उस व्यवस्थापक की शिक्षाओं और उसके आदेशों से प्रसन्न हो और खुले दिल से, उन्हें स्वीकार कर ले। यह अल्लाह और उसके रसूल पर विश्वास के तक़ाज़ों में से हैः
﴿فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ حَرَجٗا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمٗا ٦٥﴾[27]
“सो सौगन्ध है तेरे पालनहार की! यह मोमिन नहीं हो सकते, जब तक कि आपस के तमाम मतभेदों में आपको ह़ाकिम न मान लें। फिर जो निर्णय आप उनमें कर दें, उनसे अपने दिल में किसी प्रकार तंगी और अप्रसन्नता न अनुभव करें और आज्ञाकारिता के साथ स्वीकार कर लें।"
इस सम्मान, तक़्दीस और सुस्वीकार्यता से यह आवश्यक हो जाता है कि उन्हें अमल में लाने में जल्दी की जाय, सुख-दुख में उनपर कान धरा जाय और आज्ञापालन की जाय, किसी प्रकार का टाल-मटोल या काहिली न की जाय और न ही व्यवस्था के अनुसार चलने, उसकी पाबन्दी करने और आदेशों तथा निषेध बातों का अनुपालन करने से जान छुड़ाने के लिए बहाना बाजी की जाय।
हम यहाँ केवल दो उदाहरणों का उल्लेख करने पर बस करते हैं, जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के समयकाल में अल्लाह तआला की शरीअत और उसके आदेश तथा निषेध के प्रति दृष्टिकोण और रवैये को स्पष्ट करते हैं:
प्रथम उदाहरणः शराब के ह़राम किए जाने के पश्चात मदीने में मोमिनों का रवैया
अरबों को शराब (मदिरा), उसके बर्तनों और उसकी मह़फ़िलों से बड़ा लगाव था। अल्लाह तआला को भली-भाँति इसका ज्ञान था। इसलिए अल्लाह तआला ने उसे मरहलावार हराम करने का रास्ता अपनाया। यहां तक कि वह निर्णायक आयत उतर गयी
, जिसने उसे निश्चित रूप से ह़राम क़रार दे दिया और यह घोषणा की किः
﴿رِجۡسٞ مِّنۡ عَمَلِ ٱلشَّيۡطَٰنِ﴾[28]
“यह सब अपवित्र, शैतान के कामों में से हैं।"
चुनांचे इस आयत के आधार पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसका पीना, बेचना और उसे ग़ैरमुस्लिमों को उपहार देना तक ह़राम क़रार दे दिया। फिर क्या था! मुसलमानों ने उनके पास जो भी शराब के भण्डार और उसके बर्तन थे, उन्हें लाकर मदीने की गलियों में उन्डेल दिया। यह इस बात की घोषणा थी कि वह शराब से पाक और पवित्र हो गये।
अल्लाह तआला की इस शरीअत की पैरवी का एक अनूठा पहलू यह है कि जब उनमें से एक दल को यह आयत पहुंची, तो उनमें एक ऐसा व्यक्ति भी था, जिसके हाथ में शराब का प्याला था, जिसमें से उसने कुछ पी लिया था और कुछ उसके हाथ में बाक़ी था, तो उसने उसे अपने मुंह से फेंक दिया और अल्लाह तआला के फ़र्मान [29]فَهَلۡ أَنتُم مُّنتَهُونَ (अर्थातः तो क्या तुम बाज़ आने वाले हो?) का पालन करते हुए- कहाः ऐ हमारे पालनहार! हम बाज़ आ गये।
यदि हम इस्लामी परिवेश में शराब के विरुध्द जंग करने और उसका काम समाप्त करने में इस स्पष्ट सफलता की तुलना उस भयानक पराजय से करेंगे, जिससे संयुक्त राज्य अमरीका उस समय दो-चार हुआ, जब उसने क़ानून साज़ी करके और फ़ौजी दस्तों (अर्थात शक्ति) के द्वारा शराब के विरुध्द युध्द करने का इरादा किया, तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि मानव-जाति का सुधार केवल आसमान का क़ानून और संविधान ही कर सकता है, जिसकी विशेषता यह है कि वह शक्ति और शासन पर भरोसा करने से पहले आत्मा और विश्वास पर भरोसा करता है।
दूसरा उदाहरणः प्राथमिक मुसलमान महिलाओं का वह रवैया जो उन्होंने अल्लाह तआला के उस आदेश के प्रति अपनाया, जिसके द्वारा अल्लाह तआला ने उनपर जाहिलियत काल (इस्लाम से पूर्व अरब जिस अज्ञानता और पथभ्रष्टता में जी रहे थे, उसे जाहिलियत का काल कहते हैं।) के समान बिना पर्दे के घूमना वर्जित (ह़राम) कर दिया और उनपर पर्दा करना और ह़या के साथ रहना अनिवार्य कर दिया। चुनांचे जाहिलियत काल के समय स्त्री अपने सीने को खोलकर चलती थी। उसके ऊपर कुछ नहीं होता था। स्त्री प्रायः अपनी गर्दन, बाल और कानों की बालियों को दिखाती रहती थी। सो, अल्लाह तआला ने मोमिन महिलाओं पर पहली जाहिलियत के समान बेपर्दा घूमना ह़राम क़रार दे दिया। उन्हें आदेश दे दिया कि वह जाहिलियत की स्त्रियों से भिन्न रहें। उनकी चाल-ढाल का विरोध करें। अपने चाल-चलन, रहन-सहन और तमाम अह़वाल में पर्दे और सभ्यता पर विशेष ध्यान दें। अपनी गर्दनों पर दुपट्टे डाल लिया करें। अर्थात अपने सिर के दुपट्टे को इस तरह कसकर बाँध लिया करें कि वह सीने के खुले हुए भाग को ढाँक लें। इस प्रकार सीना, गर्दन और कान छुप जाएगा।
यहाँ पर उम्मुल मोमिनीन सैयिदा आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा हमें बताती हैं कि किस प्रकार प्रथम इस्लामी समाज में मुहाजिरीन और अन्सार की स्त्रियों ने इस इलाही (ईश्वरीय) क़ानून का स्वागत किया, जो महिलाओं के जीवन में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन से सम्बन्धित था और वह है चाल-ढाल (वेश-भूषा), बनाव-सिंगार और वस्त्र।
आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा फ़रमाती हैं: प्रथम मुहाजिरीन की महिलाओं पर अल्लाह तआला रह़मत बरसाये...... जब अल्लाह तआला ने यह आयत उतारीः
﴿وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ﴾[30]
“और अपने गरीबान पर अपनी ओढ़नियाँ डाल लिया करें।"
तो उन्होंने अपनी चादरों को फाड़कर उनसे ओढ़नियाँ बना लीं।[31]
यह है मोमिन महिलाओं का मौक़िफ़ उस चीज़ के बारे में, जिसका अल्लाह तआला ने उन्हें हुक्म दिया है। वह जिस चीज़ का अल्लाह तआला ने आदेश दिया है, उसका पालन करने और जिस चीज़ से रोका है उससे बचने में जल्दी करती हैं। न कोई संकोच, न प्रतीक्षा। उन्होंने एक दिन, दो दिन या इससे अधिक प्रतीक्षा नहीं किया, ताकि वह नये कपड़े ख़रीद या सिल सकें, जो उनके सिर को ढाँपने के योग्य हो और गरीबान पर डालने के लिए मुनासिब हो, बल्कि जो भी कपड़ा मिल गया और जो भी रंग मयस्सर हो सका, वही उनके योग्य और मुनासिब था और यदि नहीं मिला, तो अपने कपड़ों और चादरों को फाड़कर अपने सिर पर बाँध लिया। इस बात की कोई परवाह नहीं कि इसके बाद वह कैसी दिखेंगी।
मनुष्य को मनुष्य की पूजा और ग़ुलामी से आज़ादी दिलानाः
उपरोक्त सभी विशेषताओं से बढ़कर इस रब्बानियत के परिणामों और फ़ायदों में से एक यह है कि मनुष्य, मनुष्य की पूजा और ग़ुलामी से आज़ाद हो जाता है। इसलिए कि पूजा के अनेक प्रकार और रूप हैं और उनमें से सर्वाधिक ख़तरनाक और सबसे अधिक प्रभावपूर्ण यह है कि मनुष्य अपने ही समान दूसरे मनुष्य के आगे आत्म समर्पन कर दे। चुनांचे वह उसके लिए जो चाहे और जब चाहे ह़लाल कर दे, उसपर जो चाहे और जिस तरह चाहे ह़राम ठहरा दे, उसे जिस चीज़ का चाहे आदेश दे और वह आदेश का पालन करे, और जिस चीज़ से चाहे मनाही कर दे और वह उससे दूरी बना ले। दूसरे शब्दों में वह उसके लिए एक “जीवन व्यवस्था" या “जीवन मार्ग" निर्धारित कर दे और उसके लिए उसे स्वीकार करने, उसे मानने और उसका अनुसरण करने के अतिरिक्त कोई चारा न हो।
सच्ची बात यह है कि जो हस्ती इस व्यवस्था या मार्ग को निर्धारित करने, लोगों को इसपर बाध्य करने और उन्हें इसके अधीन करने का अधिकार रखती है, वह अकेले अल्लाह की हस्ती है, जो लोगों का पालनहार, लोगों का स्वामी और लोगों का इलाह (उपास्य) है। इसलिए केवल उसी का यह अधिकार है कि वह लोगों को आदेश दे और उन्हें मना करे, उनके लिए किसी चीज़ को ह़लाल करे और उनपर किसी चीज़ को ह़राम करे। इसलिए कि यह उसकी रुबूबियत (ख़ालिक़, मालिक और पालनहार होने), उन्हें पैदा करने, और उन्हें हर प्रकार की नेमतों से सम्मानित करने का तक़ाज़ा हैः
﴿وَمَا بِكُم مِّن نِّعۡمَةٖ فَمِنَ ٱللَّهِۖ﴾[32]
“तुम्हारे पास जितनी भी नेमतें हैं, सब उसी अल्लाह की दी हुई हैं।"
यदि कुछ लोग अपने लिए इस अधिकार का दावा करें –या उनके लिए इसका दावा किया जाय- तो यह लोग अल्लाह तआला से उसकी रुबूबियत के अधिकार में झगड़ रहे हैं, उसकी उलूहियत के मामले में हस्तक्षेप कर रहे हैं और उन्होंने अल्लाह के कुछ बन्दों को अपना बन्दा और ग़ुलाम बना लिया है, हालाँकि वह भी उन्हीं के समान मख़्लूक़ हैं, उनपर भी अल्लाह की सुन्नतों में से वही चीज़ें जारी होती हैं, जो अन्य लोगों पर होती हैं।
इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि क़ुर्आन करीम ने यहूद एवं नसारा के इस व्यहार को नकारा है कि वह अपनी उस आज़ादी का परित्याग का कर बैठे, जिसपर उनकी पैदाइश हुई थी और अपने उन विद्वानों और दरवेशों की पूजा और ग़ुलामी पर सहमत हो गये, जो उनके लिए आदेश और निषेध, ह़लाल और ह़राम के क़ानून बनाने के अधिकार के मालिक बन बैठे और किसी भी व्यक्ति को आपत्ति व्यक्त करने, टिप्पिणी करने या पुनःविचार करने का कोई अधिकार नहीं रहा। इसीलिए क़ुर्आन करीम ने अह्ले किताब (यहूद एवं नसारा) पर शिर्क और ग़ैरुल्लाह की इबादत करने का ठप्पा लगा दिया है।
इसी बारे में क़ुर्आन करीम का फर्मान हैः
﴿ٱتَّخَذُوٓاْ أَحۡبَارَهُمۡ وَرُهۡبَٰنَهُمۡ أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَٱلۡمَسِيحَ ٱبۡنَ مَرۡيَمَ وَمَآ أُمِرُوٓاْ إِلَّا لِيَعۡبُدُوٓاْ إِلَٰهٗا وَٰحِدٗاۖ لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۚ سُبۡحَٰنَهُۥ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ﴾[33]
“उन्होंने अल्लाह को छोड़कर अपने विद्वानों और दरवेशों को रब (उपासना पात्र) बना लिया और मर्यम के बेटे मसीह़ को भी, हालाँकि उन्हें केवल एक अल्लाह की उपासना का आदेश दिया गया था, जिसके सिवा कोई पूजा पात्र नहीं, वह (अल्लाह) उनके साझी बनाने से पाक और पवित्र है।"
इस्लमाम क्या है?
सम्पूर्ण इस्लाम, जिसके साथ अल्लाह तआला ने अपने संदेशवाहक मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भेजा है, वह पाँच स्तम्भों पर आधारित है। कोई मनुष्य उस समय तक पक्का-सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता, जब तक उनपर ईमान न ले आए, उनकी अदायगी न करे और उनपर कार्यबध्द न हो। यह पाँच स्तम्भ इस प्रकार हैं:
1. इस बात कि गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है और मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के संदेश्वाहक हैं।
2. नमाज़ क़ायम करना।
3. ज़कात (अनिवार्य धर्म-दान) देना।
4. रमज़ान महीने के रोज़े रखना।
5. अल्लाह के पवित्र घर काबा का ह़ज करना, यदि वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य हो।
आगे इन पाँच स्तम्भों में से प्रत्येक स्तम्भ की संक्षिप्त व्याख्या पेश की जा रही हैः
प्रथम स्तम्भः “ला इलाहा इल्लल्लाह" (अल्लाह तआला के अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं) और “मुह़म्मदुर-रसूलुल्लाह" (मुह़म्मद अल्लाह के संदेश्वाहक हैं) की गवाहीः
यह गवाही मनुष्य के इस्लाम में प्रवेश करने का द्वार और कुंजी है। यह किसी अन्य गवाही या कहे जाने वाले शब्द के समान नहीं है। कदापि नहीं। बल्कि इस धर्म के अन्दर इसका एक महान और गहरा अर्थ है। यही कारण है कि जो व्यक्ति इसे अपने मुख से कह ले और इसके अर्थ को भली-भाँति जान ले, उसका प्रतिफल यह है कि क़यामत के दिन अल्लाह तआला उसे स्वर्ग में दाख़िल करेगा। इस्लाम के पैग़म्बर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम इस विषय में फरमाते हैं:
((من شهد أن لا إله إلا الله وحده لا شريك له، و أن محمدا عبده و رسوله، وكلمته ألقاها إلى مريم و روح منه، والجنة حق، والنار حق، أدخله الله الجنة على ماكان من العمل))[34]
“जिसने इस बात कि गवाही दी कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं, वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं और यह गवाही दी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के बन्दे और उसके संदेशवाहक हैं, और ईसा अलैहिस्सलाम अल्लाह के बन्दे, उसके संदेशवाहक तथा उसका कलिमा हैं, जिसे मर्यम की ओर अल्लाह तआला ने डाल दिया था और उसकी ओर से रूह़ हैं, और यह कि जन्नत सत्य है और नरक सत्य है, तो ऐसे व्यक्ति को अल्लाह तआला स्वर्ग में प्रवेश दिलायेगा, चाहे उसका कर्म कुछ भी हो।"
“ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही का अर्थ यह है कि आकाश और धरती में अकेले अल्लाह के अतिरिक्त कोई अन्य वास्तविक पूज्य नहीं। वही सच्चा पूज्य है। अल्लाह के अतिरिक्त जिसकी भी मनुष्य पूजा करता है, चाहे उसकी गुणवत्ता कुछ भी हो, वह झूठा और असत्य है।
“मुह़म्मदुर-रसूलुल्लाह" (मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अल्लाह के संदेशवाहक होने) की गवाही देने का अर्थ यह है कि आप यह ज्ञान और विश्वास रखें कि मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम संदेश्वाहक हैं, जिन्हें अल्लाह तआला ने समस्त मानव और जिन्नात की ओर संदेशवाहक बनाकर भेजा है और यह कि वह एक उपासक हैं, उपासना के पात्र नहीं हैं (अर्थात उनकी उपासना नहीं की जाएगी।), वह एक संदेशवाहक हैं, उन्हें झुठलाया नहीं जाएगा, बल्कि उनका आज्ञापालन और अनुसरण किया जाएगा। जिसने उनका आज्ञापालन किया वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा और जिसने उनकी अवहेलना की, वह नरक में जायेगा। पैग़म्बर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((ما من رجل يهودى أو نصراني يسمع بي، ثم لا يؤمن بالذى جئت به إلا دخل النار))
“जो भी यहूदी या ईसाई मेरे बारे में सुना, फिर मेरी लाई हुई शरीअत पर ईमान न लाये, वह नरक में प्रवेश करेगा।"
इसी प्रकार आप यह ज्ञान और विश्वास रखें कि शरीअत के क़ानून और आदेश तथा निषेध को, चाहे उसका सम्बन्ध इबादतों से हो, शासन व्यवस्था से हो, ह़लाल और ह़राम से हो, आर्थिक, सामाजिक या व्यवहारिक जीवन से हो या इनके अतिरिक्त किसी अन्य क्षेत्र से, केवल इसे रसूले करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के मार्ग से ही लिया जा सकता है। इसलिए कि अल्लाह के रसूल मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ही अपने रब की ओर से उसकी शरीअत के प्रसारक व प्रचारक हैं। अतः किसी मुसलमान के लिए वैध नहीं है कि वह पैग़म्बर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के अतिरिक्त किसी अन्य रास्ते से आये हुए किसी क़ानून, आदेश या मनाही को स्वीकार करे।
द्वितीय स्तम्भः नमाज़
नमाज़ को अल्लाह तआला ने इसलिए मश्रूअ किया है, ताकि यह अल्लाह और बन्दे के बीच सम्बन्ध का माध्यम बन सके, जिसमें वह उसकी आराधना करे और उसे पुकारे। नमाज़ धर्म का खम्बा और उसका मूल स्तम्भ है, जिस प्रकार कि तम्बू का खम्बा होता है। यदि वह गिर जाय, तो शेष स्तम्भों का कोई मूल्य नही रह जाता। इसी के बारे में क़यामत के दिन मनुष्य से सर्वप्रथम पूछ-ताछ की जायेगी। यदि नमाज़ स्वीकार कर ली गयी, तो उसके सारे कर्म स्वीकार कर लिए जायेंगे और यदि इसे ठुकरा दिया गया, तो उसके सारे कर्म ठुकरा दिए जायेंगे।
अल्लाह तआला ने नमाज़ के लिए कुछ शर्तें निर्धारित की हैं तथा इसके कुछ अर्कान और वाजिबात भी हैं, जिन्हें उनके लक्षित विधि के अनुसार करना प्रत्येक नमाज़ी के लिए आवश्यक है, ताकि उसकी नमाज़ अल्लाह के पास ग्रहणयोग्य हो सके।
नमाज़ और उसकी रकअतों की संख्याः
नमाज़ों की संख्या दिन और रात में पाँच है, जो इस तरह हैं: फ़ज्र की नमाज़ दो रक्अत, ज़ुह्र की नमाज़ चार रक्अत, अस्र की नमाज़ चार रक्अत, मग़्रिब की नमाज़ तीन रक्अत और इशा की नमाज़ चार रक्अत। इनमें से प्रत्येक नमाज़ का एक निर्धारित समय है, जिससे उसको विलम्ब करना जायज़ नहीं, जिस प्रकार कि उसे उसके समय से पहले पढ़ना जायज़ नहीं। यह नमाजें मस्जिदों में पढ़ी जायेंगी, जो अल्लाह के घर हैं। इससे केवल उस व्यक्ति को छूट है, जिसके पास कोई शर्ई कारण हो, जैसे कि यात्रा और बीमारी आदि।
नमाज़ के फ़ायदे और विशेषताएं:
इन नमाज़ों को पाबंदी के साथ पढ़ने के बहुत से लौकिक और परलौकिक लाभ और विशेषताएं हैं, जिनमें से कुछ यह हैं:
① नमाज़ मनुष्य के, संसार की बुराइयों और कठिनाइयों से सुरक्षित रहने का कारण है। इसके बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((من صلى الصبح فى جماعة فهو فى ذمة الله، فانظر ياابن آدم لا يطلبنك الله من ذمته بشئ))[35]
“जिसने सुबह (फ़ज्र) की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी, वह अल्लाह तआला की सुरक्षा में है। सो ऐ आदम के बेटे! देख, कहीं अल्लाह तआला तुझसे अपनी सुरक्षा में से किसी चीज़ का मुतालबा न करने लगे।"
② नमाज़ गुनाहों की क्षमा का कारण है, जिनसे कोई व्यक्ति सुरक्षित नहीं रह पाता। इसके बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((من تطهر فى بيته، ثم مضى إلى بيت من بيوت الله ليقضى فريضة من فرائض الله، كانت خطواته إحداها تحط خطيئة، والأخرى ترفع درجة))[36]
“जो व्यक्ति अपने घर में वज़ू करता है, फिर अल्लाह के घरों में से किसी घर (मस्जिद) में अल्लाह तआला की अनिवार्य की हुई किसी फ़र्ज़ नमाज़ को पढ़ने के लिए जाता है, तो उसके एक पग पर एक गुनाह झड़ता है और दूसरे पग पर एक पद बलन्द होता है।"
③ नमाज़, नमाज़ पढ़ने वालों के लिए फ़रिश्तों की दुआ और उनकी क्षमा याचना का कारण है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((الملائكة تصلى على أحدكم ما دام في مصلاه الذي صلى فيه ما لم يحدث، تقول: اللهم اغفر له، اللهم ارحمه))[37]
“फ़रिश्ते तुम्हारे लिए रह़मत की दुआ करते रहते हैं, जब तक तुममें से कोई व्यक्ति अपने उस स्थान पर होता है, जिसमें उसने नमाज़ पढ़ी है, जब तक कि उसका वज़ू टूट न जाय। फ़रिश्ते दुआ करते हैं: ऐ अल्लाह! उसे क्षमा कर दे! ऐ अल्लाह! उसे क्षमा कर दे!"
④ नमाज़ शैतान पर विजय प्राप्त करने, उसे परास्त और अपमानित करने का साधन है।
⑤ नमाज़ मनुष्य के लिए क़यामत के दिन सम्पूर्ण प्रकाश प्राप्त करने का कारण है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((بشر المشائين في الظلم إلى المساجد، بالنور التام يوم القيامة))[38]
“अन्धेरों में मस्जिदों की ओर जाने वालों को, क़यामत के दिन सम्पूर्ण प्रकाश (नूर) की शुभ सूचना दे दो।"
⑥ जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने का कई गुना अज्र व सवाब है। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((صلاة الجماعة أفضل من صلاة الفذ بسبع و عشرين درجة))[39]
“जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना अकेले नमाज़ पढ़ने से सत्ताईस गुना अधिक बेहतर है।"
⑦ नमाज़ के कारण उन मुनाफ़िक़ों के अवगुणों में से एक अवगुण से छुटकारा मिलता है, जिनका ठिकाना जहन्म का सबसे निचला भाग है। । नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((ليس صلاة أثقل على المنافقين من صلاة الفجر والعشاء، ولو يعلمون ما فيهما لأتوهما و لو حبوا))[40]
“मुनाफ़िक़ों पर फ़ज्र और इशा की नमाज़ से भारी कोई नमाज़ नहीं। यदि उन्हें पता चल जाय कि इन दोनों नमाज़ों में क्या –अज्र व सवाब- है, तो वह उसमें अवश्य आयें, चाहे घुटनों के बल घिसट कर ही क्यों न हो?"
⑧ यह मनुष्य के लिए वास्तविक सौभाग्य, हार्दिक सन्तुष्टि की प्राप्ति, मानसिक रोगों तथा जीवन की समस्याओं से छुटाकारा पाने का उचित मार्ग है, जिनसे आज कल अधिकांश लोग जूझ रहे हैं। जैसे कि शोक, चिन्ता, बेचैनी, व्याकुलता और बहुत से पारिवारिक, व्यापारिक और वैज्ञानिक मामलों में नाकामी इत्यादि।
⑨ नमाज़ स्वर्ग में प्रवेश पाने का कारण है। । नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम फ़रमाते हैं:
((من صلى البردين دخل الجنة))[41]
“जिसने दो ठंडी नमाज़ें (अस्र और फ़ज्र की नमाज़ें) पढ़ीं, वह जन्नत में प्रवेश करेगा।"
((لن يلج النار أحد صلى قبل طلوع الشمس و قبل غروبها)) يعنى الفجر والعصر.[42]
“जिस व्यक्ति ने सूरज निकलने और उसके डूबने से पहले नमाज़ पढ़ी, वह जहन्नम में कदापि नहीं जाएगा।" अर्थात फ़ज्र और अस्र की नमाज़।
इसके अतिरिक्त इस्लाम के अन्दर अन्य नमाज़ें भी हैं, जो अनिवार्य नहीं हैं, बल्कि सुन्नत (ऐच्छिक) हैं। जैसे कि ईदैन (ईदुल-फ़ित्र और ईदुल अज़्ह़ा) की नमाज़, चाँद और सूरज ग्रहण की नमाज़, इस्तिस्क़ा (वर्षा माँगने) की नमाज़ और इस्तिख़ारा की नमाज़ इत्यादि।
तीसरा स्तम्भः ज़कात
ज़कात इस्लाम का तीसरा स्तम्भ है। इसके महत्व के कारण अल्लाह तआला ने क़ुर्आन करीम में बहुत से स्थानों पर इसका और नमाज़ का एक साथ उल्लेख किया है। यह कुछ निर्धारित शर्तों के साथ मालदारों की सम्पत्तियों में एक अनिवार्य अधिकार है। इसका वितरण कुछ निर्धारित लोगों के बीच, निर्धारित समय में किया जाता है।
ज़कात फ़र्ज़ करने की ह़िक्मतः
इस्लाम में ज़कात के फ़र्ज़ किए जाने की अनेक हिक्मतें और लाभ हैं, जिनमें से कुछ ये हैं:
① मोमिन के हृदय को गुनाहों और नाफरमानियों के प्रभाव तथा दिलों को उनके दुष्ट परिणामों से पवित्र करना एवं उसकी आत्मा को बखीली और कंजूसी की बुराई और उनके बुरे नतीजों से पाक और शुध्द करना। अल्लाह तआला का फर्मान हैः
﴿خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡ صَدَقَةٗ تُطَهِّرُهُمۡ وَتُزَكِّيهِم بِهَا﴾[43]
"उनके मालों में से ज़कात ले लीजिए, जिसके द्वारा आप उन्हें पाक और पवित्र कीजिए।"
② निर्धन मुसलमानों की किफ़ायत, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति, उनकी देख-रेख तथा उन्हें अल्लाह के सिवा किसी के सामने हाथ फैलाने की ज़िल्ल्त से बचाना।
③ क़र्ज़दार मुसलमानों का क़र्ज़ चुकाकर उनके शोक और चिन्ता को हल्का करना।
④ अस्त-व्यस्त और खिन्न दिलों को ईमान और इस्लाम पर एकत्र करना और उन्हें दृढ़ विश्वास न होने के कारण पाए जाने वाले संदेहों और मानसिक व्याकुलताओं से निकाल कर दृढ़ ईमान और परिपूर्ण विश्वास की ओर ले जाना।
⑤ मुसलमान यात्री की सहायता करना। यदि वह रास्ते में फंस जाय और उसके पास यात्रा के लिए पर्याप्त व्यय न हो, तो उसे ज़कात के कोष से इतना माल दिया जाएगा, जिससे उसकी आवश्यकता पूरी हो जाय और वह अपना घर लौट लौट सके।
⑥ धन को पवित्र करना, उसको बढ़ाना, उसकी सुरक्षा करना तथा अल्लाह तआला के आज्ञापालन, उसके आदेश के सम्मान और उसकी मख़्लूक़ पर उपकार करने की बरकत से, उसे दुर्घटनाओं से बचाना।
जिन धनों में ज़ाकत अनिवार्य हैः
वह चार प्रकार के हैं, जो निम्नलिखित हैं:
❶ धरती से निकलने वाले अनाज और ग़ल्ले।
❷ कीमतें (मूल्य) जैसे सोना चांदी और बैंके नोट (करेंसियाँ)।
❸ व्यवसाय के सामान। इससे अभिप्राय हर वह वस्तु है, जिसे कमाने और व्यपार करने के लिए तैयार किया गया हो, जैसे ... जानवर, अनाज, गाड़ियाँ आदि।
❹ चौपाये। इससे मुराद ऊँट, बकरी और गाय हैं।
इनसब पूंजियों में ज़कात कुछ निर्धारित शर्तों के पाये जाने पर ही अनिवार्य है। यदि वह नहीं पायी गयीं, तो ज़कात अनिवार्य नहीं है।
ज़कात के ह़क़दार लोग
इस्लाम में ज़कात के कुछ विशेष मसारिफ (उपभोक्ता) हैं और वह निम्नलिखित वर्ग के लोग हैं:
① ग़रीब और निर्धन लोग। (जिनके पास अपनी ज़रूरतों का आधा सामान भी न हो।)
② मिस्कीन लोग। (जिनके पास अपनी ज़रूरतों का आधा या उससे अधिक सामान हो, किन्तु पूरा सामान न हो।)
③ ज़कात वसूल करने पर नियुक्त कर्मचारी।
④ ऐसे लोग जिनके दिल की तसल्ली की जाय। (अर्थात नौमुस्लिम, मुसलमान क़ैदी आदि)
⑤ ग़ुलाम (दास या दासी) आज़ाद करने के लिए।
⑥ क़र्ज़ खाये हुए लोग तथा तावान उठाने वाले लोग।
⑦ अल्लाह के मार्ग में अर्थात जिहाद (धर्म युध्द) के लिए।
⑧ यात्री (अर्थात वह व्यक्ति जिसका यात्रा के दौरान माल अस्बाब समाप्त हो जाय।
ज़कात के फ़ायदेः
① अल्लाह और उसके रसूल के आदेश के पालन और अल्लाह और उसके रसूल की मर्ज़ी को अपने नफ़्स की प्रिय चीज़ –धन- पर प्राथमिकता देना।
② अमल के सवाब का कई गुणा बढ़ जाना। (अल्लाह तआला का फ़रमाम हैः)
مَثَلُ ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ أَمۡوَٰلَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ أَنۢبَتَتۡ سَبۡعَ سَنَابِلَ فِي كُلِّ سُنۢبُلَةٖ مِّاْئَةُ حَبَّةٖۗ وَٱللَّهُ يُضَٰعِفُ لِمَن يَشَآءُۚ[44]
“जो लोग अपना धन अल्लाह तआला के रास्ते में ख़र्च करते हैं, उसका उदाहरण उस दाने के समान है, जिससे सात बालियाँ निकलें और हर बाली में सौ दाने हों, और अल्लाह जिसे चाहे बढ़ा-चढ़ा कर दे।"
③ ज़कात निकालना ईमान का प्रमाण और उसकी निशानी है। जैसा कि ह़दीस में हैः
((والصدقة برهان))[45]
“और सदक़ा (ईमान का) प्रमाण है।"
④ गुनाहों और दुष्ट आचरण की गन्दगी से पवित्रता प्राप्त करना। अल्लाह तआला का फ़रमान हैः
﴿خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٰلِهِمۡ صَدَقَةٗ تُطَهِّرُهُمۡ وَتُزَكِّيهِم بِهَا﴾[46]
“आप उनके धनों में से सद्क़ा ले लीजिए, जिसके द्वारा आप उनको पाक-साफ कर दें।"
⑤ धन में बढ़ोतरी, बरकत, उसकी सुरक्षा और उसकी बुराई से बचाव। इसलिए कि ह़दीस में हैः
((ما نقص مال من صدقة))[47]
“सदक़ा करने से धन में कोई कमी नहीं होती।"
⑥ सदक़ा करने वाला क़्यामत के दिन अपने सदक़ा की छाँव में होगा। जैसा कि एक ह़दीस में है कि अल्लाह तआला सात लोगों को उस दिन अपनी छाया में स्थान देगा, जिस दिन उसकी छाया के अतिरिक्त कोई और छाया न होगीः
((رجل تصدق بصدقة فأخفاها حتى لا تعلم شماله ما تنفق يمينه))[48]
“एक वह व्यक्ति जिसने सदक़ा किया, तो उसे इस प्रकार गुप्त रखा कि जो कुछ उसके दाहिने हाथ ने ख़र्च किया, उसका बायाँ हाथ उसे नहीं जानता है।"
⑦ सदक़ा अल्लाह तआला की कृपा और दया का कारण हैः (अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः)
﴿وَرَحۡمَتِي وَسِعَتۡ كُلَّ شَيۡءٖۚ فَسَأَكۡتُبُهَا لِلَّذِينَ يَتَّقُونَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ﴾[49]
“मेरी रह़मत सारी चीज़ों को सम्मिलित है, सो उसे मैं उन लोगों के लिए अवश्य लिखूँगा, जो डरते हैं और ज़कात देते हैं।"
चौथा स्तम्भः रोज़ा
रोज़े का अर्थ है, रोज़े की नियत से, फ़ज़्र निकलने से लेकर सूरज डूबने तक, तमाम रोज़ा तोड़ने वाली चीज़ों, जैसे खाने-पीने और सम्भोग से रुक जाना। रोज़ा रमज़ानुल मुबारक के पूरे महीने का रखना है, जो साल में एक बार आता है।
अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः
﴿يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُتِبَ عَلَيۡكُمُ ٱلصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَتَّقُونَ ﴾[50]
“ऐ लोगो जो ईमान लाये हो! तुमपर रोज़े अनिवार्य किए गये हैं, जिस प्रकार तुमसे पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किए गये थे। ताकि तुम डरने वाले (परहेज़गार) बन जाओ।"
और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
((من صام رمضان إيمانا و احتسابا غفر له ما تقدم من ذنبه))[51]
“जिसने ईमान के साथ और सवाब की नियत रखते हुए रमज़न के रोज़े रखे, उसके पिछले गुनाह क्षमा कर दिए जायेंगे।"
रोज़े के फ़ायदेः
इस महीने का रोज़ा रखने से मुसलमान को अनेक ईमानी, मानसिक और स्वास्थ सम्बन्धी फ़ायदे प्राप्त होते हैं, जिनमें से कुछ यह हैं:
❶ रोज़ा पाचन क्रिया और मेदा (आमाशय) को सालों साल लगातार (निरन्तर) कार्य करने के कष्ट से आराम पहुँचाता है, अनावश्यक चीज़ों को पिघला देता है, शरीर को शक्ति प्रदान करता है तथा बहुत से रोगों के लिए भी लाभदायक है।
❷ रोज़ा नफ़्स को शाइस्ता (सभ्य, शिष्ट) बनाता है और भलाई, व्यवस्था, आज्ञापालन, धैर्य और इख़्लास (निःस्वार्थता) का आदी बनाता है।
❸ रोज़ेदार को अपने रोज़ेदार भाइयों के बीच बराबरी का अहसास होता है। वह उनके साथ रोज़ा रखता है और उनके साथ ही रोज़ा खोलता है। इस तरह उसे सर्व-इस्लामी एकता का अनुभव होता है। उसे भूख का अहसासा होता है, तो अपने भूखे भाइयों की खबरगीरी और देख-रेख करता है।
तथा रोज़े के कुछ आदाब हैं, जिनसे रोज़ेदार का सुसज्जित होना महत्वपूर्ण है, ताकि उसका रोज़ा शुध्द और पूर्ण हो।
कुछ चीज़ें रोज़े को व्यर्थ करने वाली भी हैं। यदि रोज़ेदार उनमें से किसी एक चीज़ को कर ले, तो उसका रोज़ा व्यर्त हो जाता है। इस्लाम ने बीमार, यात्री, दूध पिलाने वाली महिला और इनके अतिरिक्त अन्य लोगों की हालत का लिह़ाज़ करते हुए यह वैध किया है कि वह इस महीने में रोज़ा तोड़ दें और साल के आने वाले समय में उसकी क़ज़ा कर लें।
पांचवाँ स्तम्भः ह़ज
यह स्तम्भ मुसलमान स्त्री तथा पुरुष पर पूरे जीवन में केवल एक बार अनिवार्य है। इससे अधिक बार करना नफ़्ल और सुन्नत है, जिस पर क़यामत के दिन अल्लाह तआला के पास बहुत बड़ा पुण्य मिलेगा। ह़ज मुसलमान पर केवल उसी समय अनिवार्य है, जब वह उसके करने की शक्ति रखता हो। चाहे वह आर्थिक शक्ति हो या शारीरिक शक्ति। यदि वह इसकी शक्ति न रखता हो, तो इस स्तम्भ को अदा करने से भार मुक्त हो जाता है।
ह़ज के फ़ायदेः
ह़ज की अदायगी से मुसलमान को कई फ़ायदे प्राप्त होते हैं, जिनमें से कुछ ये हैं:
❶ यह आत्मा, शरीर और धन के द्वारा अल्लाह तआला की उपासना है।
❷ ह़ज में संसार के हर स्थान से मुसलमान एकत्र होते हैं, सबके सब एक स्थान पर मिलते हैं, एक ही पोशाक पहनते हैं और एक ही समय में एक ही रब की इबादत करते हैं। राजा और प्रजा, धनी और निर्धन, काले और गोरे, अरबी और अजमी के बीच कोई अन्तर नहीं होता। हाँ, यदि होता है तो केवल आत्मसंयम और सत्कर्म के आधार पर। इस प्रकार मुसलमानों के बीच आपस में परिचय, सहयोग, प्रेम तथा एकता का भाव उत्पन्न होता है और इस सम्मेलन के द्वारा वह उस दिन को याद करते हैं, जिस दिन अल्लाह तआला उनसब को मरने के पश्चात एक साथ पुनः जीवित करेगा और हिसाब के लिए एक ही स्थान पर एकत्र करेगा। इसलिए वह अल्लाह तआला की आज्ञापालन करके मरने के बाद के जीवन के लिए तैयारी करते हैं।
ह़ज के कार्यकर्म का क्या उद्देश्य है?
किन्तु प्रश्न यह है कि काबा, जो कि मुसलमानों का क़िब्ला है, जिसकी ओर अल्लाह तआला ने उन्हें, चाहे वह कहीं भी हों, नमाज़ के अन्दर मुख करने का आदेश दिया है, उसकी चारों ओर तवाफ़ (परिक्रमा) करने का उद्देश्य क्या है? इसी प्रकार मक्का के अन्य स्थानों अरफ़ात और मुज़दलिफ़ा में उसके निर्धारित समय में ठहरने तथा मिना में क़्याम करने का क्या उद्देश्य है? तो याद रखना चाहिए कि इसका केवल एक ही उद्देश्य है और वह हैः उन पाक और पवित्र स्थानों में उसी कैफ़ियत और उसी तरीक़े पर अल्लाह तआला की इबादत करना, जिस प्रकार अल्लाह तआला ने आदेश दिया है।
जहाँ तक स्वयं काबा तथा उन स्थानों और सारी सृष्टि की बात है, तो ज्ञात होना चाहिए कि न तो उनकी पूजा और उपासना की जाएगी और न ही वे लाभ और हानि पहुँचा सकते हैं। इबादत केवल अल्लाह की की जाएगी और लाभ और हानि पहुँचाने वाला भी केवल अल्लाह तआला ही है। यदि अल्लाह ने उस घर का हज करने और उन मशायर और स्थानों में ठहरने का आदेश न दिया होता, तो मुसलमान के लिए जायज़ नहीं होता कि वह ह़ज करे और यह सारी चीजें करे। इसलिए की उपासना मनुष्य के अपने विचार और इच्छा के आधार पर नहीं हो सकती, बल्कि कुर्आन करीम में मौजूद अल्लाह तआला के आदेश या रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत के अनुसार ही हो सकती है। अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः
﴿وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلٗاۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ﴾[52]
“अल्लाह तआला ने उन लोगों पर खाना-काबा का हज अनिवार्य कर दिया है, जो वहाँ तक पहुंचने की ताक़त रखते हों। और जो व्यक्ति कुफ़्र करे, तो अल्लाह तआला (उससे बल्कि) सर्व संसार से बेनियाज़ (निस्पृह) है।"
संक्षेप के साथ ह़ज के कार्यक्रम यह हैं:
1. एहराम (ह़ज्ज में दाखिल होने की नीयत करना)।
2. मिना में रात बिताना।
3. अरफ़ात में ठहरना।
4. मुज़्दलिफ़ा में रात बिताना।
5. कंकरी मारना।
6. क़ुर्बानी का जानवर ज़बह करना।
7. सिर के बाल मुंडाना।
8. तवाफ़ (काबा की परिक्रमा करना।)
9. सइ (सफ़ा और मरवा के बीच दौड़ना)
10. मिना वापस जाना और वहाँ रात बताना।
उम्रा के आमाल यह हैं:
❶ एह़राम (उम्रा में दाखिल होने की नियत करना।)
❷ तवाफ़ करना।
❸ सइ करना।
❹ सिर के बाल मुंडाना।
❺ एह़राम से ह़लाल होना। (एह़राम खोल देना।)
ऊपर उल्लेख किए गये कार्यकर्मों में से हर एक की अन्य विस्तार, व्याख्या और टिप्पणी है, जिसे आप अल्लाह की इच्छा से उस समय जान लेंगे जब आप शीघ्र ही ह़ज्ज व उम्रा के मनासिक को अदा करने का संकल्प करेंगे।
अन्ततः
इस संदेश के अन्त में, जिसमें हमने इस्लाम की कुछ शिक्षाओं, सिध्दान्तों, उसके आचरण और कार्यकर्मों के बारे में संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है, हम आपका इस बात पर शुक्रिया अदा किए बिना नहीं रह सकते कि आपने हमें यह अवसर प्रदान किया कि हम आपके सामने संसार के महानतम धर्म और अन्तिम आसमानी संदेश के बारे में यह संक्षिप्त जानकारी पेश कर सकें। आशा है कि यह जानकारी इस धर्म को स्वीकार करने और इसकी शिक्षाओं और सिध्दांतों को मानने के बारे में ठंडे दिल से सोचने वालों के लिए शुभारम्भ सिध्द होगी। हम आपको ऐसा मनुष्य समझते हैं, जो केवल सत्य का इच्छुक और ऐसे धर्म की तलाश में है, जो संतुष्टि और अनुकरण का पात्र हो। इस ईमानी, आत्मिक और मानसिक यात्रा के बाद हम आपके बारे में यही सोचते और गुमान करते हैं कि आप हर उस विचार, आस्था या उपासना से खुद को अलग कर लेंगे, जो इस धर्म के विरुध्द हो। ताकि आप एकेश्वरवाद, प्रकृति और बुध्दि के धर्म, सारे ईश्दूतों के धर्म.... अन्तिम संदेश्वाहक मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सन्देश की पैरवी करके लोक तथा परलोक की सफलता और जन्नत से सम्मानित हो सकें। आप इस शुध्द और सच्चे धर्म की ओर लोगों को आमन्त्रण देने वाले बन जाएं; ताकि उन्हें संसार के नरक और उसके शोक और चिन्ता से मुक्त करा सकें। उन्हें एक बहुत ही भयानक और कठोर चीज़, नरक की आग से नजात दिला सकें। यदि वह इस धर्म पर विश्वास रखे बिना और इस महान रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैरवी किए बिना मर जाते हैं!!
अनुवादक
(अताउर्रह़मान ज़ियाउल्लाह)
[1] सूरह अल्-मुर्सलातः 20-23
[2] सूरह आले-इम्रानः 30
[3] सूरह अल्-बक़राः 116
[4] सूरह अर्-रूमः 30
[5] सूरह अश्-शूराः 21
[6] सूरह अल्-बक़राः 111
[7] सूरह अन्-नज्मः 31
[8] सूरह अल्-बक़राः 111
[9] सूरह अल्-अह़्क़ाफ़ः 5
[10] सूरह आले-इम्रानः 190-191
[11] सूरह अर्-रअदः 11
[12] सूरह इब्राहीमः 11
[13] सूरह अल्-जासियाः 21-22
[14] सूरह अल्-ह़ज्जः 78
[15] मुस्लिम
[16] सूरह अल्-बक़राः 184
[17] सूरह अल्-बक़राः 185
[18] सूरह अज़्-ज़ुह़ाः 8
[19] इस ह़दीस को इमाम अह़मद ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है और इसकी सनद सह़ीह़ है जैसा कि मुनावी की किताब अल-यसीर में है।
[20] इस ह़दीस को इमाम अह़मद ने अपनी मुस्नद में और तबरानी ने मोजमुल-कबीर में सहीह सनद के साथ रिवायत किया है।
[21] सूरह अल्-माइदाः 8
[22] सूरह आले-इम्रानः 135
[23] सूरह अल्-क़ससः 50
[24] सूरह अन्-नम्लः 88
[25] सूरह हूदः 1
[26] सूरह अल्-मुल्कः 3
[27] सूरह अन्-निसाः 65
[28] सूरह अल्-माइदाः 90
[29] सूरह अल्-माइदाः 91
[30] सूरह अन्-नूरः 31
[31] बुख़ारी
[32] सूरह अन्-नह़्लः 53
[33] सूरह अत्-तौबाः 31
[34] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[35] इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[36] इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[37] इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।
[38] इसे अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है।
[39] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[40] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[41] इसे बुख़ारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[42] इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[43] सूरह अत्-तौबाः 103
[44] सूरह अल्-बक़राः 261
[45] इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[46] सूरह अत्-तौबाः 103
[47] इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।
[48] बुख़ारी तथा मुस्लिम
[49] सूरह अल्-आराफ़ः 156
[50] सूरह अल्-बक़राः 183
[51] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[52] सूरह आले-इम्रानः 97