قانون الحرب والهدنة في الإسلام
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مقالة باللغة الهندية تبين قوانين الحرب والهدنة في الإسلام وتبين أن الإسلام هو الذي عرف بحقوق الأعداء، حيث لم يكن العالم قد تصور بآداب الحرب، كما أن العالم الغربي أول ما عرف بذلك في القرن السابع عشر الميلادي عن طريق المفكرغروتيوس، وعلى العكس من ذلك، فإن آداب الحرب التي جاء بها الإسلام تعتبر في الحقيقة قوانين، لأنها أوامر من الله و رسوله يجب على المسلم امتثالها وتطبيقها حتى مع الأعداء. والآن سيرى معنا الناظر في هذا المقال - وله أن يحكم - أن قوانين الحرب وقواعدها التي وضعها الإسلام قبل أربعة عشر قرنا من الزمن، كيف اقتبس منها الغرب وحاكاها، ورغم المحاكاة والتقليد لم يصل الغرب إلى ذلك المستوى من المعايير المتحضرة للحرب، الذي بلغنا إليه الإسلام.
इस्लामी युद्ध-नियम व संधि की हैसियत
] हिन्दी & Hindi &[ هندي
साइट इस्लाम धर्म
संपादनः अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
2014 - 1436
﴿قانون الحرب والهدنة في الإسلام ﴾
« باللغة الهندية »
موقع دين الإسلام
مراجعة: عطاء الرحمن ضياء الله
2014 - 1436
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।
إن الحمد لله نحمده ونستعينه ونستغفره، ونعوذ بالله من شرور أنفسنا، وسيئات أعمالنا، من يهده الله فلا مضل له، ومن يضلل فلا هادي له، وبعد:
हर प्रकार की हम्द व सना (प्रशंसा और गुणगान) केवल अल्लाह के लिए योग्य है, हम उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से मदद मांगते और उसी से क्षमा याचना करते हैं, तथा हम अपने नफ्स की बुराई और अपने बुरे कामों से अल्लाह की पनाह में आते हैं, जिसे अल्लाह तआला हिदायत प्रदान कर दे उसे कोई पथभ्रष्ट (गुमराह) करने वाला नहीं, और जिसे गुमराह कर दे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। हम्द व सना के बाद :
इस्लामी युद्ध-नियम व संधि की हैसियत
इस्लाम ने इसके विपरीत जंग के जो शिष्टाचार बताए हैं, उनकी सही हैसियत क़ानून की है, क्योंकि वे मुसलमानों के लिए अल्लाह और रसूल के दिए हुए आदेश हैं, जिनकी पाबन्दी हम हर हाल में करेंगे, चाहे हमारा दुश्मन कुछ भी करता रहे। अब यह देखना हर इल्म रखने वाले का काम है कि जो जंगी-नियम चौदह सौ साल पहले तय किए गए थे, पश्चिम के लोगों ने उसकी नक़ल की है या नहीं, और नक़ल करके भी वह जंग की सभ्य मर्यादाओं के उस दर्जे तक पहुंच सका है या नहीं, जिस पर इस्लाम ने हमें पहुंचाया था। पश्चिम वाले अक्सर यह दावा किया करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने सब कुछ यहूदियों और ईसाइयों से ले लिया है। इस लिए बाइबल को भी पढ़ डालिए, ताकि आपको मालूम हो जाए कि सभ्यता के इन दावेदारों का पवित्र ग्रंथ जंग के किन तरीक़ों की हिदायत देता है। (इस उद्देश्य के लिए बाइबल की किताब निर्गमन (Exodus) पाठ 34, किताब गिनती (Numbers) पाठ 31, किताब व्यवस्था-विवरण (Deuteronomy) पाठ 30,7,2 और किताब यशूअ (Joseph) पाठ 6,8 को पढ़ लेना काफ़ी है।)
शुरू ही में यह बात भी समझ लीजिए कि इस्लाम में इन्सान के इन्सान होने की हैसियत से जो अधिकार बयान किए गए हैं, उनको दोहराने की अब ज़रूरत नहीं है। इनको दिमाग़ में रखते हुए देखिए कि इस्लाम के दुश्मन के क्या हुक़ूक़ इस्लाम में मुक़र्र किए गए हैं।
युद्ध न करने वालों के अधिकार
इस्लाम में सबसे पहले दुश्मन मुल्क की जंग करती हुई (Combatant) और जंग न करती हुई (Non-Combatant) आबादी के बीच फ़र्क़ किया गया है। जहां तक जंग न करती हुई आबादी का संबंध है (यानी जो लड़ने वाली नहीं है या लड़ने के क़ाबिल नहीं है। मिसाल के तौर पर औरतें, बच्चे, बूढ़े, बीमार, अंधे, अपाहिज वग़ैरह) उसके बारे में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की हिदायतें निम्नलिखित हैं।
जो लड़ने वाले नहीं हैं, उनको क़त्ल न किया जाए
''किसी बूढे़, किसी बच्चे और किसी औरत को क़त्ल न करो।''
''मठों में बैठे जोगियों को क़त्ल न करो।'' (या इबादतगाहों में बैठे हुए लोगों को न मारो।)
जंग में एक मौक़े पर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने एक औरत की लाश देखी तो फ़रमाया, ''यह तो नहीं लड़ रही थी।'' इससे इस्लामी क़ानूनदानों ने यह उसूल मालूम किया कि जो लोग लड़ने वाले न हों उनको क़त्ल न किया जाए।
युद्ध करने वालों के अधिकार
इसके बाद देखिये कि लड़ने वालों को क्या अधिकार इस्लाम ने दिए हैं।
आग का अज़ाब न दिया जाए
हदीस में पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का इरशाद है कि, ''आग का अज़ाब देना (नरक के रूप में) आग के रब के सिवा किसी को शोभा नहीं देता।'' इससे यह हुक्म निकला कि दुश्मन को ज़िन्दा न जलाया जाए।
ज़ख़्मी पर हमला न किया जाए
''किसी ज़ख़्मी पर हमला न करो।'' अभिप्राय है वह ज़ख़्मी जो लड़ने के क़ाबिल न रहा हो, न अमली तौर पर लड़ रहा हो।
क़ैदी को क़त्ल न किया जाए
''किसी क़ैदी को क़त्ल न किया जाए।''
बांध कर क़त्ल न किया जाए
''पैग़म्बर (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने बांध कर क़त्ल करने या क़ैद की हालत में क़त्ल करने से मना फ़रमाया।'' हज़रत अबू-अय्यूब अंसारी (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिन्होंने यह रिवायत पैग़म्बर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से नक़ल की है, फ़रमाते हैं कि ''जिस ख़ुदा के हाथ में मेरी जान है, उसकी क़सम ख़ाकर कहता हूं कि मैं किसी मुर्ग़ को भी बांधकर ज़िब्ह न करूंगा।''
दुश्मन क़ौम के देश में आम ग़ारतगरी या लूटमार न की जाए
यह हिदायत भी की गई कि दुश्मनों के मुल्क में दाख़िल हो तो आम तबाही न फैलाओ। बस्तियों को वीरान न करो, सिवाय उन लोगों के जो तुम से लड़ते हैं, और किसी आदमी के माल पर हाथ न डालो। हदीस में बयान किया गया है कि ''मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने लूटमार से मना किया है।'' और आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) का फ़रमान था कि ''लूट का माल मुरदार की ही तरह, हलाल नहीं है।'' यानी वह भी मुरदार की तरह हराम है। हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़ौजों को रवाना करते वक़्त हिदायत फ़रमाते थे कि ''बस्तियों को वीरान न करना, खेतों और बाग़ों को बरबाद न करना, जानवरों को हलाक न करना।'' (ग़नीमत के माल का मामला इससे अलग है। इससे मुराद वह माल है, जो दुश्मन के लश्करों, उसके फ़ौजी कैम्पों और उसकी छावनियों में मिले। उसको ज़रूर इस्लामी फ़ौजें अपने क़ब्ज़े में ले लेंगी। लेकिन आम लूटमार वह नहीं कर सकतीं।)
जीते हुए इलाक़े के लोगों से कोई चीज़ मुफ़्त या बिना इजाज़त के न ली जाए
इस बात से भी मना कर दिया गया कि आम आबादी की किसी चीज़ से, मुआवज़ा अदा किये बग़ैर फ़ायदा न उठाया जाए। जंग के दौरान में अगर दुश्मन के किसी इलाक़े पर क़ब्ज़ा करके मुसलमानों की फ़ौज वहां ठहरी हो तो उसको यह हक़ नहीं पहुंचता कि लोगों की चीज़ों का बे-रोक-टोक इस्तेमाल करे। अगर उसको किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो ख़रीद कर लेना चाहिए या मालिकों की इजाज़त लेकर उसको इस्तेमाल करना चाहिए। हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) फ़ौजों को रवाना करते वक़्त यहां तक फ़रमाते थे कि ''दूध देने वाले जानवरों का दूध भी तुम नहीं पी सकते, जब तक कि उनके मालिकों से इजाज़त न ले लो।''
दुश्मन की लाशों पर गु़स्सा न निकाला जाए
इस्लाम में पूरे तौर पर इस बात को भी मना किया गया है कि दुश्मन की लाशों का अनादर किया जाए या उनकी गत बिगाड़ी जाए। हदीस में आया है कि ''हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने दुश्मनों की लाशों की काट, पीट या गत बिगाड़ने से मना फ़रमाया है।'' यह हुक्म जिस मौक़े पर दिया गया, वह भी बड़ा सबक़-आमोज़ है। उहुद की जंग में जो मुसलमान शहीद हुए थे, दुश्मनों ने उनकी नाक काट कर उनके हार बनाए और गलों में पहने। हुजू़र (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के चचा हज़रत हम्ज़ा (रज़ियल्लाहु अन्हु) का पेट चीर कर उनका कलेजा निकाला गया और उसे चबाने की कोशिश की गई। उस वक़्त मुसलमानों का गु़स्सा हद को पहुंच गया था। मगर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि तुम दुश्मन क़ौम की लाशों के साथ ऐसा सुलूक न करना। इसी से अंदाज़ा किया जा सकता है कि यह दीन हक़ीक़त में ख़ुदा ही का भेजा हुआ दीन है। इसमें इन्सानी जज़्बात और भावनाओं का अगर दख़ल होता तो उहुद की जंग में यह दृश्य देखकर हुक्म दिया जाता कि तुम भी दुश्मनों की फ़ौजों की लाशों का इस तरह अनादर करो।
दुश्मन की लाशें उसके हवाले करना
अहज़ाब की जंग में दुश्मन का एक बड़ा मशहूर घुड़सवार मरकर खाई में गिर गया। काफ़िरों ने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के सामने दस हज़ार दीनार पेश किए कि उसकी लाश हमें दे दीजिए। आप (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया कि मैं मुर्दे बेचने वाला नहीं हूं। तुम ले जाओ अपने आदमी की लाश।
वादा-ख़िलाफ़ी सख़्ती से मना
इस्लाम में प्रतिज्ञाभंग (बदअहदी) को भी सख़्ती से मना कर दिया गया है। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) फ़ौजों को भेजते वक़्त जो हिदायतें देते थे, उनमें से एक यह थी ''बदअहदी न करना।'' क़ुरआन और हदीस में इस हुक्म को बार-बार दोहराया गया है कि दुश्मन अगर वचन व प्रतिज्ञा की ख़िलाफ़वर्ज़ी करता है तो करे, लेकिन तुम को अपने प्रतिज्ञा व वचन की ख़िलाफ़वर्ज़ी कभी न करना चाहिए। हुदैबिया की सुलह की मशहूर घटना है कि सुलहनामा तय हो जाने के बाद एक मुसलमान नौजवान अबू-जंदल (रज़ियल्लाहु अन्हु) जिनका बाप सुलहनामे की शर्तें अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से तय कर रहा था, बेड़ियों में भागते हुए आये और उन्होंने कहा मुसलमानो मुझे बचाओ!! अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने उनसे फ़रमाया कि मुआहदा हो चुका है। अब हम तुम्हारी मदद नहीं कर सकते, तुम वापस जाओ। अल्लाह तुम्हारे लिए कोई रास्ता खोलेगा। उनकी दयनीय दशा को देखकर मुसलमानों की पूरी फ़ौज रो पड़ी, लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने जब फ़रमा दिया कि वचन (अहद) को हम तोड़ नहीं सकते, तो उनको बचाने के लिए एक भी व्यक्ति आगे न बढ़ा और काफ़िर उनको जबरन घसीटते हुए ले गए। यह वचन व प्रतिज्ञा की पाबन्दी की अनोखी मिसाल है और इस्लामी इतिहास में ऐसी मिसालें बहुत-सी मौजूद हैं।
जंग से पहले जंग के एलान का हुक्म
क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि, ''अगर तुम्हें किसी क़ौम से ख़यानत (यानी संधि की प्रतिज्ञा तोड़ने) का ख़तरा हो तो उसकी प्रतिज्ञा खुल्लम-खुल्ला उसके मुंह पर मार दो'' (8:58)। इस आयत में इस बात से मना कर दिया गया है कि जंग के ऐलान के बग़ैर दुश्मन के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी जाए, सिवाय इसके दूसरे फ़रीक़ ने आक्रामक कार्यवाइयां शुरू कर दी हों। अगर दूसरे फ़रीक़ ने एलान के बग़ैर आक्रामक कार्यवाइयों की शुरुआत कर दी हो तो फिर हम बग़ैर एलान किये उसके ख़िलाफ़ जंग कर सकते हैं, वरना कु़रआन हमें यह हुक्म दे रहा है कि एलान करके उसे बता दो कि अब हमारे और तुम्हारे बीच कोई संधि, प्रतिज्ञा बाक़ी नहीं रहा है और अब हम और तुम बरसरे जंग हैं। अगरचे मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून का तक़ाज़ा भी यह है कि जंग के ऐलान के बग़ैर जंग की जाए, लेकिन बीसवीं सदी में भी तमाम बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जंग के एलान के बग़ैर शुरू हुईं। वह उनका अपना बनाया हुआ क़ानून है, इसलिए वह अपने ही क़ानून को तोड़ने के मुख़्तार हैं। मगर हमारे लिए यह ख़ुदा का दिया हुआ क़ानून है, हम उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं कर सकते।