حكم الحج عمن مات ولم يحج تفريطًا
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فتوى مترجمة إلى اللغة الهندية، عبارة عن سؤال أجاب عنه فضيلة الشيخ محمد صالح العثيمين رحمه الله، ونصه: «من مات ولم يحج وهو في الأربعين وكان مقتدرًا على الحج، مع أنه مُحافِظ على الصلوات الخمس، وكان في كل سنة يقول: سوف أحج هذه السنة، ومات وله ورثة، هل يُحَج عنه، وهل عليه شيء؟».
उस आदमी की ओर से हज्ज का हुक्म जिसने लापरवाही से हज्ज नहीं किया
] हिन्दी & Hindi &[ هندي
मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन
अनुवादः अताउर्रहमान ज़ियाउल्लाह
2014 - 1435
﴿حكم الحج عمن مات ولم يحج تفريطاً ﴾
« باللغة الهندية »
محمد بن صالح العثيمين
ترجمة: عطاء الرحمن ضياء الله
2014 - 1435
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बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
मैं अति मेहरबान और दयालु अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ।
إن الحمد لله نحمده ونستعينه ونستغفره، ونعوذ بالله من شرور أنفسنا، وسيئات أعمالنا، من يهده الله فلا مضل له، ومن يضلل فلا هادي له، وبعد:
हर प्रकार की हम्द व सना (प्रशंसा और गुणगान) केवल अल्लाह के लिए योग्य है, हम उसी की प्रशंसा करते हैं, उसी से मदद मांगते और उसी से क्षमा याचना करते हैं, तथा हम अपने नफ्स की बुराई और अपने बुरे कामों से अल्लाह की पनाह में आते हैं, जिसे अल्लाह तआला हिदायत प्रदान कर दे उसे कोई पथभ्रष्ट (गुमराह) करने वाला नहीं, और जिसे गुमराह कर दे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं। हम्द व सना के बाद :
उस आदमी की ओर से हज्ज करने का हुक्म जिसने लापरवाही की वजह से हज्ज नहीं किया और उसकी मृत्यु होगई
प्रश्नः
आदरणीय शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि एक आदमी की मृत्यु हो गयी और उसने हज्ज नहीं किया, जबकि वह चालीस साल का था और हज्ज करने पर सक्षम था। हालांकि वह पाँच समय की नमाज़ों की पाबंदी करनेवाला थ। वह हर साल कहता था कि : इस साल मैं हज्ज करूँगा। उसकी मृत्यु हो गयी और उसके वारिस हैं, तो क्या उसकी तरफ से हज्ज किया जायेगा? और क्या उसके ऊपर कोई चीज़ अनिवार्य है?
उत्तरः
तो शैख रहिमहुल्लाह ने इस तरह उत्तर दियाः ''विद्वानों ने इसके बारे में मतभेद किया है। चुनाँचे उनमें से कुछ का कहना है : उसकी ओर से हज्ज किया जाएगा, और उसे इसका लाभ पहुँचेगा, और यह ऐसे ही होगा जैसे कि किसी ने अपनी ओर से हज्ज किया हो।
जबकि कुछ लोगों ने कहा है : उसकी ओर से हज्ज नहीं किया जायेगा, और यह कि यदि उसकी ओर से हज़ार बार भी हज्ज किया जाए, वह क़बूल नहीं होगा।
अर्थात उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं होगी। और यही कथन सत्य है। क्योंकि इस आदमी ने बिना किसी उज़्र के एक ऐसी इबादत को छोड़ दिया जो उसके ऊपर अनिवार्य और तुरंत फर्ज़ थी। तो यह कैसे हो सकता है कि वह (स्वयं) तो इस कर्तव्य को छोड़ देता है, फिर मृत्यु के बाद हम उसे इसका प्रतिबद्ध बनाते हैं। रही बात विरासत की तो अब उससे वारिसों का अधिकार संबंधित हो गया है, सो हम उन्हें इस हज्ज की क़ीमत से कैसे वंचित कर सकते हैं जबकि वह उसके मालिक की ओर से पर्याप्त भी नहीं होगा। इसी चीज़ को इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने ''तह्ज़ीबुस्सुनन'' में उल्लेख किया है, और मैं भी यही कहता हूँ कि : जिस व्यक्ति ने हज्ज को लापरवाही करते हुए उस पर सक्षम होने के बावजूद छोड़ दिया, तो उसकी ओर से हज्ज कभी भी पर्याप्त नहीं होगा, भले ही लोग उसकी ओर से हज़ार बार हज्ज करें। रही बात ज़कात की, तो कुछ विद्वानों ने कहा है कि : यदि वह मर गया और उसकी तरफ से ज़कात अदा कर दी गई तो उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त हो जायेगी। लेकिन मैंने जो नियम वर्णन किया है उसकी अपेक्षा यह है कि ज़कात से भी उसकी ज़िम्मेदारी समाप्त नहीं होगी। लेकिन मेरा विचार है कि मैयित की छोड़ी हुई संपत्ति से ज़कात को निकालना चाहिए, क्योंकि उसके साथ गरीबों और ज़कात के अधिकारी लोगों का हक़ संबंधित है। जबकि हज्ज का मामला इसके विपरीत है। अतः उसे उसके तर्का (मृत की छोड़ी हुई संपत्ति) से नहीं निकाला जायेगा क्योंकि उससे किसी मनुष्य का हक़ संबंधित नहीं होता है। जबकि ज़कात के साथ इन्सान का हक़ संबंधित होता है, इसलिए ज़कात को उसके अधिकारी लोगों के लिए निकाला जायेगा, लेकिन उसके मालिक की ओर से काफी नहीं होगा, और उसे उस व्यक्ति के समान सज़ा दी जायेगी जिसने ज़कात अदा नहीं किया, अल्लाह तआला से दुआ है कि वह हमें इससे सुरक्षित रखे। इसी तरह रोज़े का भी मामला है, यदि पता चल जाए कि इस आदमी ने रोज़ा छोड़ दिया है और उसकी क़ज़ा करने में लापरवाही की है, तो उसकी तरफ से क़ज़ा नहीं किया जायेगा क्योंकि उसने लापरवाही से काम लिया है और इस इबादत को जो कि इस्लाम के स्तंभों में से एक स्तंभ है बिना किसी उज़्र (शरई कारण) के छोड़ दिया है, इसलिए यदि उसकी ओर से कज़ा किया जाए तो उसे लाभ नहीं पहुँचेगा। जहाँ तक आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है कि : ''जो व्यक्ति मर गया और उसके ऊपर रोज़े हैं तो उसका वली (अभिभावक) उसकी ओर से रोज़ा रखे।''[1] तो यह उस आदमी के बारे में हैं जिसने कोताही व लापरवाही से काम नहीं लिया है, लेकिन जिस आदमी ने खुल्लम खुल्ला बिना किसी शरई उज़्र के क़ज़ा को छोड़ दिया तो उसकी तरफ से क़ज़ा करने का क्या फायदा है।'' अंत
''फतावा इब्ने उसैमीन'' (21/226).
[1] सहीह बुख़ारी, हदीस संख्याः (1952), सहीह मुस्लिम, हदीस संख्याः (1147).